पृष्ठम्:अथर्ववेदभाष्यम्-काण्डम् १ (क्षेमकरणदास् त्रिवेदी).pdf/१९१

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- - (१६८) अथर्ववेदभाष्ये। सू० ३४ ॥ सो तू (नः) हमको ( मधुमतः ) उत्तम विद्या बाले (कृषि) कर ॥१॥ भावार्थ-मधु शब्द [ मन जानना-3, न%E] का अर्थ शान है । धात्वर्थ के अनुसार यह प्राशय है कि शिक्षा के प्रहण, अभ्यास, अन्वेषण और परीक्षण से मनुष्य को उत्तम सुखदायका विद्या मिलती है ॥१॥ दूसरा अर्थ ॥ (इयम् वीरुत् ) यह तू फैलती हुई बेल (मधुजाना ) मधु ( शान् ) से उत्पन्न हुई है (मधुना) मधु के साथ (स्था) तुझ को (खनामसि ) दम खोदते हैं । (मधोः अधि ) बसन्त ऋतु से (प्रजाताअसि) जन्मी है , (सा) सो तू (नः) हमको ( मधुमतः) मधु रस वाले (कृधि ) कर ॥१॥ भावार्थ-मधु शब्द उसी धातु [मन जानना] से सिद्ध होकर [शात् ] के रस का वाचक है। इस अर्थ में विधा को मधुलता अर्थात् शात् की देख वा प्रेमलता माना है। (मधु) शहत् बसन्त ऋतु में अनेक पुष्पों के रस से मधुमक्षिकाओं द्वारा मिलता है , इसी प्रकार (मधुना) प्रेम.रस के साथ (खोदने ) अर्थात् अन्वेषण और परीक्षण से विद्वान लोग अनेक विद्वानों से विद्यारूप मधु को पाकर (मधु ) आनन्द रस का भोग करते हैं ॥ १ ॥ जिह्वाया अग्रे मधु मे जिह्वामूले मधूलकम् । ममेदह तावसो मम चित्तमुपायसि ॥२॥ जिह्वायोः । अग्ने ।मध' । मे । जिहा-मले।मधूलकम् । मम। इत्। अहं । ऋतौ । असः । मम । चित्तम् । उप-आयसि ॥ २ ॥ भाषार्थ-(मे) मेरी (जिह्वायाः) रस जीतने वाली, जिहा के ( अग्रे) सिरे पर (मधु) शान [चा मधु का रस] होवे और (जिज्ञासूले) जिहा की पा०५।२।१४। इति प्रशंसायां मतुप । प्रशस्तक्षानयुक्तान , क्षौदरसोपेतान् वा यथा । कृधि । कुरु ॥ २-जिह्वायाः । १।१०।३। जयति रसमनया । रसनायाः । अने। -