पृष्ठम्:अथर्ववेदभाष्यम्-काण्डम् १ (क्षेमकरणदास् त्रिवेदी).pdf/२८

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प्रथमं काण्डम् - (५) तू अच्छे प्रकार फैल, (एव) जैसे (उभे) दोनों (पानी) धनुष कोटिये (ज्यया) अय के साधन, चिल्लाके साथ [तन जाती हैं ]] (वाचस्पतिः) वाणी का स्वामी (नियच्छतु) नियम में रक्खे, (मयि) मुझ में वर्तमान (श्रुतम्) वेद विज्ञान (मयि) मुझ में (एव) ही (अस्तु) रहे ॥३॥ भावार्य-जैसे संग्राम में शूर वीर धनुप् की दोनों कोटियों को डोरी में चढ़ा कर वाण से रक्षा करता है उसी प्रकार आदिगुरु परमेश्वर अपने कृपा- युक्त दोनों हाथों को [अर्थात् अज्ञान की हानि और विज्ञान की वृद्धि को इस मुझ ब्रह्मचारी पर फैला कर रक्षा करे और नियम पालन में दृढ़ करके परम सुग्नदायक ब्रह्मविद्या का दान करे और विज्ञान का पूरा स्मरण मुझमें रहे ॥३॥ भगवान् यास्क के अनुसार-निरुक्त है। १७ (ज्या) शब्द का अर्थ जीतने वाली पदा आयु घटाने वाली अथवा वाणों को छोड़ने वाली वस्तु है । . उपहूती वाचस्पतिरुपास्मान् वाचस्पतियताम् । ' सं नुतेन' गमेमहि मा नु तेन विरोधिषि ॥४॥ उप-हूतः। वाचः। पतिः। उप मुस्मान्।वाचः। पतिःयतास् सम् । श्रुतन। गमे महि।मा।श्रुतेन । वि। राधिषि ॥ ४ ॥ भाषार्य- (वाचस्पतिः) वाणी का स्वामी, परमेश्वर (उपहूतः) समीप घुलाया गया है, (वाचस्पतिः) वाणी का स्वामी (अस्मान् ) हम को उपह्वय- अभितः सर्वतः। वितनु । तनु विस्तारे-लोट. अकर्मकः । वितनुहि, वितन्यस्ख विस्तृतो भव । उभे । ईदूदेद् द्विवचनं प्रगृह्यम् । पा० १।१।११ । इति प्रगृ- हाम् । इये। आनीं। आज +ऋगती-क्तिन् नकारोपसर्जनम्। पूर्ववत् प्रगृह्यम् आर्ती, धनुष्कोटी, अटन्यौ धनुः प्रान्ते । पार्ती अर्तन्यो वारण्यो वारिषण्यो वा निरु०६।३६ ॥ ज्यया । ज्या जयतेर्वा जिनातेर्वा प्रजावयतीपूनिति वा निरु०६।१७। अध्न्यादयश्च । उ०४ । ११२ । इति जि जये,वा, ज्या वयोहानी पिच्-बा, जुरहसि गती, णिच.-यक् । निपातनात् साधुः । यद्वा । अन्ये- बपि दृश्यते । पा० ३।२।१०१ । इति ज्यु गत्याम् यदा, ज्या वयोहानौ,णिच्- द। टाप् । धनुर्गुणेन, मौा । वाचः+पतिः म०१ ॥ वाण्याः स्वामी । नि+ यच्छतु । नियमतु, नियमे रक्षतु । अन्यत् सुगम व्याख्यातं च । ४-उप+हूतः । उप + हाहाने-। समीपं कृतावाहनः, कृत- -