पृष्ठम्:अथर्ववेदभाष्यम्-काण्डम् १ (क्षेमकरणदास् त्रिवेदी).pdf/४३

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vimanand (२०) अथर्ववेदभाप्ये मू०४। ___ भावार्थ-जो पुरुष, पुत्रों के लिये माताओं के समान, और भाइयों के लिये वहिनों के समान, हितकारी होते हैं वे सन्मार्गों से आप चलते और सव को चलाते हैं ॥१॥ अभूर्या उप सूर्ये याभिर्वा सूर्यः सह । ता न हिन्वन्त्वध्वरम् ॥ २॥ असूः । याः । उप । सूर्य । याभिः । दा । सूर्यः । मुह । ताः । नः । हिन्वन्तु । अध्वरम् ॥ २॥ भापार्थ-'अमूः) बह (याः) जो माता और बहिन] (उप-उपेत्य) समीप होकर (स्ये) सूर्य के प्रकाश में रहती हैं, (वा) और (याभिः सह) जिन माता और बहिनों के साथ (सूर्यः) सूर्य का प्रकाश है । (ताः) वाह (नः) हमारे (अध्वरम् ) उत्तम मार्ग देने हारे वा हिंसा रहित कर्म को (हिन्वन्तु) सिद्ध करें घा वढ़ावें ॥३॥ भावार्थ--इस मन्त्र में दो बातों का वर्णन है एक यह कि किसी में उत्तम गुणों का होना, दूसरे यह कि उन उत्तम गुणों का फैलाना ॥३॥ . १-जो नररत्न माता और भगिनियों के समान परिश्रमी और उपारी होकर सूर्य रूप विद्या के प्रकाश में विराजते हैं और जिनके सत्य अभ्यास से सूर्यवत् विद्या का प्रकाश संसार में फैलता है, वह तपस्वी पुण्यात्मा संसार में सुल की वृद्धि करते हैं। यन्त्यः। मधुना । फलिपाटिनमिमनिजनां गपटिनाविधतश्च । उ०१।१।। इति मन ज्ञाने-उ । धश्चान्तादेशः । रसभेदेन । मधुरगुणेन । पयः । सर्व- धातुभ्योऽसुन् । उ० ४ । १८६ । इति पीङ् पाने-अनुन् । दुग्धम्, रसम् ॥ २ असूः। श्रदर ,स्त्रियां जस् । ताः परिदृश्यमानाः याः। अम्बयो जामयश्च, म० १ । यद्वा । आपः, म० ३। उप । समापे, उपेत्य। श्राधिययेन । प्रादरेण । सूर्य। १।३।५।आदित्यलोके । सूर्यवद् शानप्रकाशे। सूर्यप्रकाश। याभिः। अम्यि- जामिभिः। अद्भिः। वा । समुच्चय । विकल्पे । मूर्यः । ११३ । ५ । सवितृ- लोकः । तद्वद् ज्ञानप्रकाशः । सवितृप्रकाशः। सह । पह क्षमाशम्-अच् । साहित्ये।