पृष्ठम्:अथर्ववेदभाष्यम्-काण्डम् १ (क्षेमकरणदास् त्रिवेदी).pdf/४६

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सू० ५। प्रथमंकाण्डम् ।। (३) भावार्थ--जल से रोग निवारक और पुष्टि वर्धक पदार्थ उत्पन्न होते हैं। जैसे जल से उत्पन्न हुये घास आदि से गौयें और घोड़े बलवान् होकर उपकारी होते हैं, उसी प्रकार सब मनुष्य अन्न श्रादि के सेवन से पुष्ट रह कर और ईश्वर की महिमा जान कर सदा परस्पर उपकारी बनें ॥४॥ यह मन्त्र कुछ भेद से ऋ. १ । २३ । १६, है ।। भगवान् मनु ने कहा है-अ. १८॥ . सो ऽभिध्याय शरीरात् स्वात् खिसृक्षुर्विविधाः प्रजाः।। अप एव ससर्जादौ तासु बीजमवासृजत् ॥ १॥ उस [परमात्मा] ने ध्यान करके अपने शरीर [प्रकृति से अनेक प्रजाओं के उत्पन्न करने की इच्छा करते हुये पहिले (अपः) जल को ही उत्पन्न किया और उस में वीज को छोड़ दिया। सूक्तम् ५॥ १-४ । आपो देवताः । गायत्री छन्दः ॥ चलप्राप्त्युपदेश:- चल की प्राप्ति के लिये उपदेश ॥ आपो हि ष्ठा मयोभुवस्ता ने अर्जे दधातन। महे रणाय चक्षसे ॥ १॥ आपः । हि । स्थ । मुयुः-भुवः । ताः । न जुजोधातन् । महे । रणाय । चक्षसे ॥१॥ __ भाषार्थ-(श्रापः) हे जलो ! [जल के समान उपकारी पुरुषों] (हि) वाजिनः। अत इनिठनौ । पा०५।२।११५। इति वाज-भूम्नि मत्वर्थीय इनि प्रत्ययः । वेगवन्तः, बलयुक्ताः ।वाजी वेजनवान्-निरू२ । २८ गावः।१।२।३ हे धेनवः । अश्वाः। गावः-सर्वे प्राणिनःइत्यर्थः। वाजिनीः। ऋम्नभ्यो ङीप। पा०४।१।५ । इति वाजिन्-डीप । वा छन्दसि। पा०६।१ । १०६ । इतिजसि पूर्वसवर्णदीर्घः । वाजिन्यः, वेगवत्यः, बलवत्यः ॥ १-सापः।१।४।३। हे व्यापयित्र्यः । जलधारा: । जलवत् उपकारिणः,