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वरमश्रीकता लोके |
१२३ |
१२६
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वरं करीरो मरुमार्गवर्ती |
१३६ |
२२०
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वर्धितैः सेवितैः किं तैः |
१२९ |
१७०
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वर्यतुर्यपरिच्छेदे |
७६ |
७
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वल्लीनां कति न स्फुरन्ति |
१४० |
२५२
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वसिऊण सग्गलोऐ |
८५ |
७९
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वसन्त्यरण्येषु चरन्ति । |
४० |
२०
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वहसि बलिभुजां कुलानि |
१२१ |
१११
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वाचंयमेश शं देहि |
८५ |
३
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वातान्दोलितपङ्कज |
५५ |
३४
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वापीतोयं तटरुवनं |
७० |
१४८
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वारांराशिरसौ प्रसूय |
१४ |
१०८
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वासः शैलशिखान्तरेषु |
११६ |
७२
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विचक्षणजनश्रेणी |
१०८ |
९
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विच्छायतां व्रजसि किं |
१२२ |
११५
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विजयागुणानमूलं |
१३८ |
२३४
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विज्ञातनिःशेषपदार्थ |
४९ |
२
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वितर वारिद वारि |
२२ |
१८४
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विदिताखिलसद्वस्तु |
१४१ |
२
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विध्वस्ता भृगपक्षिणो |
१०६ |
१०६
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विन्ध्यमन्दरसुमेरुभूभृतां |
८७ |
६
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विपन्नं पद्मिन्यामृत- |
११३ |
५०
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विमलतां वचनस्य |
७७ |
१२
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विरम तिमिर साहसाद |
८ |
६१
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विरम रत्न मुधा तरलायसे |
८९ |
३७
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विलपति मृषा सारङ्गोऽयं |
२३ |
१८७
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विलोकयन्ति ये स्वामिन् |
९३ |
१
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विशालं शाल्मल्यां नयन |
१३१ |
१८८
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विश्रं वपुः परवध |
२८ |
३१
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विश्वोपजीपोऽपि |
७५ |
१९१
|
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विषयाः |
पृ. |
श्लो.
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विस्तीर्णो दीर्घशाखाश्रित |
१२९ |
१
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वीवाहादौ प्ररोहस्तव |
१३७ |
२२
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वृक्षान्दोलनमद्य ते |
१५३ |
९
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वृद्धिर्यस्य तो मनोरथ |
११४ |
५
|
वृषभान्योक्तयस्तद्वत् |
२५ |
|
वेगज्वलद्विटपपुञ्ज |
६९ |
१३
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वेश्मानि च्छादयद्यज्जलध |
१४० |
२४
|
वंशः प्रांशुरसौ घुणक्षत |
१४८ |
५
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व्यजनैरातपत्रैश्च |
७५ |
१८
|
व्यज्यमानकलङ्कस्य |
८ |
६
|
शक्रादरक्षि यदि |
८७ |
१
|
शङ्खान्योक्तिर्मत्कुणोक्तिः |
७६ |
|
शङ्खाः सन्ति सहस्रशो |
७७ |
१
|
शतगुणपरिपांट्या |
७१ |
१५
|
शतपदी शितपादशतैः |
१५३ |
९
|
शत्रुंजयादिसत्तीर्थ |
१०१ |
७
|
शर्करासर्पिःसंयुक्तं |
१३२ |
१९
|
शशविश्रामिणः सर्वे |
११० |
२
|
शशिदिनकरौ व्योम्नि |
७८ |
२
|
शाखाभिर्विततीभवि- |
१११ |
३
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शाखाभिर्हरिता दिशः |
१०७ |
११
|
शाखाशतचिवृतयः |
१०९ |
२
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शाखासंततिसंनिरुद्ध |
१३७ |
२२
|
शाखोटशाल्मलिपलाश |
११३ |
५
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शालेयेषु शिलातलेषु |
२० |
१६
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शाल्मल्यन्योक्तयश्चैवं |
१०९ |
१
|
शास्त्राम्बुराशेरधिगम्य |
३ |
२२
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शिरसा धार्यमाणोऽपि |
८ |
६
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शिवश्रिये श्रीचरमो |
२ |
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शुक यत्तव पठन |
५९ |
६५
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