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३४ जमथअॅई एक भावप्रवृत्तौ हि फळप्रवृत्तिः पूर्णे फलं ससंशकेषु । ह्रसक्रमाङ्गात्रत्रिरासले फलस्य नाश्शे अदिलो मुनीन्द्रेः ॥२८ जन्मप्रयाणव्रतबन्धचौलनुषाभिषेकादिकरश्लेष्ठ एवं हि भावाः पतिीयस्वैरेव योगोत्थफलं प्रक्षश्च ६९१ दे भावों के योग के आने को सन्धि कहते हैं । सन्धि में हेि श्चत ग्रह फलझन में समर्थ नहीं होता । सन्धि से कम प्रह पूर्वभव का और सन्धि से अधिक ग्रह अत्रिसभाव का फल देता है। नात्र के अंश तुल्य ग्रह होतो भाव सम्बन्धी पूर्णफळ देत7 है। भय से कम या अधिक ग्रह होतो त्रैराशिक गति द्वारा फल की कल्पना करें । भाव प्रवृत्ति में फलकी प्रवृत्ति और भावी पूर्णता में फल का पूर्णत्व होता है । एवं ह्रास क्रम से भाव के विराम में फल का अन्त होता है ऐख मुनियों ने कहा है। जन्म, यात्रा, यज्ञोपवीत, मुण्डन, राज्याभिषेक, बिबाह इत्यादि कार्यों में इसीप |कार भव साधन करनः चाहिये थे और इन्हीं भावों पर से योगोस्थफलों का आवेश करना चइये ।। २६-२९॥ आज कला के क्षुछ पण्डितों ने श्रीपतिपद्धति जातकपद्धति ( केशवो ) इत्यादि बड़े २ प्रामाणिक प्रयों को यवनमतानुवादित ग्रन्थ बतलाते हुए इस भावानयन विधि को अशुद्ध कहना और श्रीपतिभट्ट केशवदैवज्ञ, ज्ञानराजवैवज्ञ प्रश्वत प्रकाण्ड विद्वानों को ग्रन्थानधिकारो सिद्ध कहते हुए- ‘दरनमारभ्य सर्घम्न शशिधृष्या यथाक्रमम् । भावाः सर्वेऽवगन्तव्यः सन्धी राश्यधंयोजनात् ॥ इस स्थूळ भावानयन को हो शुद्ध भावनयन बताना आरम्भ कर दिया है । किन्तु ऐसा कहना उन्हीं लोगों को शोभता है। क्योंकि इस स्थूळ भावानयन को लिखते हुए शूरमहाठ श्रीशिवराजदैवज्ञ ने अपने ज्योतिर्निबन्ध नामक पुस्तक में स्वयं सुच्पष्ट लिख दिया है एतत्स्थूढं भावानयनं सूक्ष्मं तु जातकपद्धतेरवगन्तव्यम् ॥ इति । कमलाकर भट्ट ने भी अपनी सिद्धान्ततस्वविवेक नाम को पोथी में इस पर विचार किया है । किन्छु डद्यान्तर स्फुटभोग्यखण्ड इत्यादि की भाँति इसका विचार भी इन्मत्तप्रलापत्र हो गया है । इति दिक् । अह की शयनाद्यवस्था खेष्ठसख्या खेटी खेडशगुणिता पुनः । जन्मक्षद्वेष्टयुक्ताऽर्कतgघस्था क्रमाद्भवे ।। ३० ॥ शयनं चोपबेशं च नेत्रपाणिः प्रकाशनम् । गमनागमने चैव सभावसतिरागमः ॥ ३१ ॥