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(४) ताजिकनीलकण्ठी - भा० टी० । वा नहीं मानते संसारमें सभी पुरुष ईश्वरके अंश हैं स्त्रियोंको पुरुषों की कमी नहीं है. इन अपला बिचारियोंका जीवित वैधव्यरूपमें क्यों व्यर्थ करावें. हमारी माताको केवल तेरे दुर्वचनसे कुछ दिनों वैधव्य मानना पडा फिर तो ईश्वर कृपासे ऐसा सौभाग्य हवा कि, जिसके प्रतापसे हम ऐसे पंडित भंड संसारमें अवतरित हैं. अब कहिये ! हमारी याताके वैधव्ययोग है वा सौभाग्य ? तुम झूठे तुम्हारे पाठक झूठे हायरे कलियुग तुझे अपना अधिकार प्रथम क्या इसी अद्भुत रत्नपर करना था, क्या इसीके साथ तेरी मुख्य शत्रुता थी. हां ! तेरा यह प्रयोजन अग्रेसरहै कि, प्रथम शिरोमणि शास्त्रको आक्रमण करूं तो और सभी अंतर्गत होजायँगे परंतु यह अनादि शास्त्र सहसा तेरे आक्रमणमें आक्रमित इस दशा में भी नहीं होनेका कुछ दिन समय प्रभाव सार्थक करनेके लिये ज्योतिष रत्नराज पक्षसंकोच किये प्रतीक्षु हैं परिणाममें रत्नरत्नही है. इस समय में ज्योतिपकी प्रभुता न्यूनहोनेके कारण यह है कि, ज्योतिपियोंके कहे फल पूरे ठीक नहीं लगते क्योंकि कलिराजने प्रथमावेश ज्योति- पियोंसेही आरंभ उठाया. पूर्व ऋपिलोग यमनियमादि तप और मिताहारी और अप्रतिग्राही, योगाभ्यासी, सर्वशास्त्रज्ञ वेदाभ्यासी और नित्य अग्निहो- त्री थे. इससे भूत, भविष्य वर्त्तमान, समाधि, अर्थात् एकाग्र विचारसे कहतेथे. अब ज्योतिषी लोग यमनियमादिक स्थानमें दंभलोभादि और मिताहारके स्थान में अग्निसम और अप्रतिग्राही के स्थान में सर्वग्राही, योगा- भ्यासके स्थानमें द्रव्यार्जन, प्रपंच शास्त्र, वेदाभ्यासके स्थानमें वेदविक्रय, तप और जितेंद्रियताके स्थान में स्त्रीलोलुपता, अग्निहोत्रके स्थानमें तम्बाकू. एवं प्रकारके सांप्रतीय ऋषि होगये तो सर्व शास्त्रज्ञताके योग्य बुद्धि कहांसे हो ? बिना बहुज्ञता और बिना दमादिकोंके चमत्कार फल क्योंकर कहसकें. त्रा ण सर्वस्व गायत्रीके उपदेश मात्रसे दक्षिणा निमित्त जप विक्रय और यथेच्छा प्रतिग्रह ग्रहण करने लगे तो बुद्धि निर्मल और कही बात सच्ची क्यों होवे. कदाचित् किसीने कुछ परिश्रम पठनपाठनमें किया और कुछ शा ज्ञता पाईभी तो दंभ और मत्सरमें परिपूर्ण होजाते हैं. ज्योतिषमें अधिकांश गुरुलक्ष्यस्थान हैं उन युक्तियोंके दूसरेकी प्रभुताका मत्सर, ,