पृष्ठम्:ताजिकनीलकण्ठी (महीधरकृतभाषाटीकासहिता).pdf/४९

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-भाषाटीकासमेता 1 (४१) चाम दक्षिण दो प्रकार दृष्टि होती है. जैसे लग्नसे सप्तमपर्यंत दक्षिण दृष्टि और -सप्तमसे लग्नपर्यंत वामदृष्टि होती है, प्रयोजन यह है कि, एक भावस्थदृष्टि निर्बल और वामदृष्टिकी अपेक्षा दक्षिण दृष्टि बलवती होती है इसमें इनमें से दशमस्थ ग्रहपर सप्तमस्थके चतुर्थ होनेसे अतिबलवती होती है और किसी २ आचार्य्योका मत है कि एक स्थान स्थित ग्रहोंकी परस्पर दृष्टिमी अति चलवती अर्थात् कार्ग्य साधन करनेवाली होती है. विशेषतः शुभफल देती है. अब दीप्तांश कहते हैं- सूर्य्यके १५ अंश एवं चन्द्रमाके १२ मंगलके • बुधके ७ गुरुके ९ शुक्र के ७ शनिके ९ राहु केतु शनिवत् ९ । ९ दीप्तांश हैं, मतान्तरसे सभी ग्रहों के दीप्तांश बारह मात्र हैं, दृश्यग्रह द्रष्टाग्रहके दीतांश के भीतर होवे तो इत्थशाल तथा सम्बन्ध योगादिफल शुभ वा अशुभ पूरा देता है. दीप्तांशसे ऊपर होजानेमें फल पूरा नहीं देता. यही दीप्तांशोंका तात्पर्य है, आगे षोडश विशेष योगमें काम आवेगा ॥ १३ ॥ ( अनु० ) पुरः पृष्टेस्वदीतांशैर्विशिष्टंकूफलंग्रहः ॥ दद्यादतिक मे॒तेषांमध्यम॑ह॒क्फलं विदुः ॥ १४ ॥ इति नीलकंठ्यां ग्रहचारदृष्टि - विचाराऽध्यायो द्वितीयः ॥ २ ॥ दीप्तांशों का प्रयोजन विशेष कहते हैं कि जो ग्रह नवम पंचमादि दृष्टि देखताहै और जिसे देखता है ये दोनहूं अपने दीप्तांशों के भीतर हो तो इत्थशाल और दृष्टि आदिका नियत फल विशेष देते हैं. जो दीप्तांशोंसे अधिक अंशपर द्रष्टा दृश्य ग्रह हों तो उक्त फल साधारण देते हैं ॥ १४ ॥ इति महीधरकृतायां नीलकंठीभाषायां ग्रहचारदृष्टिविचारीध्यायद्वि० ॥२॥ अथ षोडशयोगाध्यायः । ( उपजाति ० ) प्रागिक बालोऽपरइंदुवारस्तथेत्थशालोऽपरई- - शराफः ॥ नक्तंततः स्याद्यमयामणूऊकंवूलतोगैरिकबूलमुक्तम् ॥ १ ॥ ( इंद्रवज्रा० ) खलासरं रद्दमथोदुफालिकुत्थंचदुत्थोत्थ दिवीरनामा ॥ तंवीर त्था दुरफश्च योगाः रु : षोडशैषां कथयामि लक्ष्म ॥ २ ॥