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भूमिका । (५) मानकर किसीको नहीं बतलाते. पुनः आगे वियाका प्रचार कैसे बढे ? ऐसे २ आचरणोंसे यह अद्वितीयशास्त्र लोप होता २इस दशाको प्राप्त होगया. सर्वसाधारणको इस अद्भुत रत्नके उन्नतिका यत्न सर्व प्रकारसे करना योग्य है. फिर ऐसा अमूल्यमणि मिलना असंभव है. विशेषतः ज्योतिषी लोगोंको इसकी उन्नतिका उद्यम करना चाहिये कि, उनका यह आजीवन पूर्वसे और पश्चात्‌के लियेभी उपयोगी है. इसमें अतिशयश्रम पठन पाठनसे करना योग्य है जिससे लोक प्रत्ययकारक ठीक फल कहसकें. दोखये ! पहिलेके महात्मा आचायने सर्व साधारण के भूति और प्रत्ययके लिये कितना श्रम उठायके यह शाखप्रचार किया कि, जिसे अब बहुधा लोग कहते हैं कि, ज्योतिषशास्त्र कुछ वस्तु नहीं न ग्रहोंकोही शुभाशुभ देनेकी सामर्थ्य है जैसा जिसका कर्म वैसा अवश्य होगा. इस अवसर में कोई नास्तिक कहते हैं कि, यह तो ब्राह्मणोंने केवल अपनी अज्ञान और अल्पश्रमी संतानके उपकारार्थ यह प्रपंच किया है. अब इसमें वक्तव्य यह है कि पूर्व लिखित दशा जब इस प्रत्यक्ष शास्त्र की होगई तो जनश्रुतिभी ऐसी होनी आध्वर्य तो नहीं तथापि इस शास्त्रका मूल तात्पर्य उन्हें विदित नहीं है नहीं तो सहसा कभी ऐसा न कह सकते. भोक्तव्य तो कर्मफल है यह बोध नहीं कि, वह क्या है और उसका परिणाम कब और क्या होगा इसका विचारद्वारा पूर्वाचायने जन्मसमय इष्ट मानकर ऐसे हि- साब बनाये कि, जिससे वह अलक्ष्यकर्म फल हित प्रत्यक्ष होजाता है. उन हिसाबों के नाम सूर्य्यादि नवग्रह और मेषादि १२ राशि तिथ्यादि पंचांग स्थापन करदिये ग्रह आप न तो कुछ देते न कुछ अशुभ कर सकते जैसा जिसका कर्म उपार्जित होने वैसा ही फल होगा, परन्तु ग्रहरूपी हिसाबके द्वारा वह अलक्ष्य लक्ष्य होजाताहै. अब इसमें ऐसा आभास हुआ कि यह असमर्थ हैं फल कर्मानुसार भोक्तव्यही है तो ग्रहाचन दानादिभी निष्प्रयोजन है परंतु यह स्थूल विचार "शृंगग्राहिन्याय" है. प्रयोजन उसका कैसा उत्तम है कि, हमने पूर्व ऐसा कर्म किया था, कि जिसका परिणाम हमको अरिष्ट धन ना- शादि मिलना है यह कर्म और फल तो अदृश्य था परंतु सूर्य वा कोई ग्रहके दशा कष्टी होनेसे हमको आरेष्ट ज्ञात हुवा. यह कर्मफलबोधक एक हिसाब