पृष्ठम्:ताजिकनीलकण्ठी (महीधरकृतभाषाटीकासहिता).pdf/६

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(६) ताजिकनीलकण्ठी - भा० टी० । सूर्य्य हुवा अब वह कर्म हमें पहलेही ज्ञात होता तो उसका प्रतीकार करते.. केवल ज्ञापक यहां सूर्य्य है तो हमको सूर्य्यही के द्वारा कर्मनिहारोपाय सूर्य्यकी वेदबोधित शांत्यादि करनी चाहिये यह शांति सूर्य्यकी क्या उस उपार्जित. दुष्कर्मकी है? जैसे सूर्य्यद्वारा कर्मफल ज्ञात हुवा ऐसे सूर्खही के द्वारा प्रती- कार करना योग्य है इसमें दोप्रकार शुभत्व होगा कि एक तो अति प्रयत्नोंसे जो द्रव्य उपार्जन किया है उसके अकस्मात व्यय होजानेमें कष्ट अपनेही हाथसे होगया सूर्यदशाबोधित कर्मफल मिलगया और अपने हाथके व्यय करनेसे - पश्चात्ताप न होगा. दूसरा लाभ यह है कि वेदबोधित और शास्त्रसंमत विधिसे जो कुछ शांत्यादि करी जाती हैं उनके कर्मनिहार और चितानंदता और पारि- कशुभत्व और सदचय गणनामें होगा विधिसे न करेंगे तो असद्दचय ( जिसमें फेर कभी काम नहीं आता) और इस समय में चित्त संताप करनेवाला होगा जैसे वैयको देनेमें वा दंडमें वा चोरी वा अग्नि जलादि प्रातमें व्यय होजानेसे कर्मफल तो मिलेगाही. कर्मसे कर्मनिहार होता है इसमें चित्तशुद्धि मुख्य है कर्मवासना पुनर्जन्म भी फलभोग के लिये देती है सांप्रत में साधारण की बुद्धि ' ऐसी ससंभ्रम होरही है कि, जन्म देहादि न पहिले था न फिर होगा केवल पंचतत्त्व अपने २ स्थानों में मिलजायँगे. जन्म फिर कौन लेता है. मरेमें कोई हटकर किसी प्रकार न आया पहिले जन्म भयाथा पीछे जन्म होगा यह भ्रांति. मिथ्या है प्राण नाम वायुका है वहभी वायुमें मिलजाता है जन्म लेनेको स्थूल दृष्टिसे तो कुछभी अवशेष नहीं रहता परन्तु मूलज्ञान यह है कि जिस कर्मके अभ्यासमें शरीर रहता है उसकी वासना बीज मात्र स्थित रहती है उसीके अनुसार कर्मफल भोगनेको दूसरा प्रपंच पंचतत्वकी वासना बलसे उत्पन्न होजाता है इसके बहुतसे प्रमाण हैं और बहुत कुछ वक्तव्य हैं विशेष विस्तार इस विषयका पुनः किसी औरग्रंथके अनुवाद व्याजसे लिखने की इच्छा है “ज्योतिषामयनं चक्षुर्निरुक्तं श्रोत्रमुच्यते । छंदः पादौ तु वेदस्य हस्तौ कल्पः प्रचक्षते ॥ यथा शिखा मयूराणां नागानां मणयो यथा । तद्वद्वेदांगश ाणां ज्यो- तिषं मूर्द्धनिस्थितम्”॥ प्रथम श्रुतिनेत्र ज्योतिष शास्त्रका एक स्कन्ध जन्मफल .