पृष्ठम्:ताजिकनीलकण्ठी (महीधरकृतभाषाटीकासहिता).pdf/७१

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भाषाटीकासमेता । (६३) पाचौं उदाहरण अशुभफल देनेवाले होते हैं, आचार्य्यने मेषस्थेब्जेत्यादि समर सिंहवाक्यके दृष्टांतसे शीघ्र मंदगतिग्रहोंके एकराशिस्थ होनेमें कहा इत्यादिभेद औरभी होते हैं यह अभिप्राय प्रकट किया है |॥ ३५ ॥ अनु० - तद्युक्तंनीचगस्थनीचेनरिपुणारिपोः ॥ इत्थशालंकार्य्यनाशीत्युक्तंतत्रयतः स्फुटम् ॥ ३६ ॥ लग्नेश कार्येश और चन्द्रमा नीच वा शत्रुराशिमें हो तो इत्थशाल कार्य नाशक कंबूल होता है यह पूर्वोक्तवाक्य और आचार्येतरोक्तिहै और यहां का नाराक एक राशिस्थ इत्थशाल भेदभी कहा हैं तो इसमें अतिव्याप्ति होती है. इसके शंकानिवृत्त्यर्थ आचार्य्यकृत यह श्लोक है, प्रयोजन है कि, गतग्रह नीचस्थ ग्रहसे और शत्रुराशिस्थ ग्रहसे इत्थशाली हो और चन्द्रमा नी . चशत्रुगत इत्थशाली हो तो यह अन्यत्र तो संभव है परन्तु एकराशिस्थ जो होकर अशुभफली कंबूल भेदकहेहैं उनमें अयुक्त हैं क्योंकि नीचराशि दोग्र- हकी एक नहीं होती तथा शत्रुराशि दोकी एकभी यहां असंभव है, जहां शत्रुता होगी तहां दृष्टि न होगी, दृष्टिविना इत्थशालही नहीं होता है. यद्वा लग्नेश कार्ये- शकी परस्पर दृष्टि न होनेमें बीचवाले किसी ग्रहके दोनहूके समीपांशवर्ती होनेसे 'इत्थशाल संभावना मानी जाय तो इसप्रकार होने में नक्तयोग ही होगया, यद्दा दोनहूं के बीच तीसरा एकसे तेज लेकर दूसरेको देता है, यह मानाजाय तो यह यमया योग होजाता है, ऐसी ही शनि मंगल से मणउं योगभी संभव है तो प्रथम भिन्न.राशिगत चतुर्थ सप्तम दृष्टेत्यादि स्पष्टही कहा है, अब मेषस्थे- ब्जेत्यादि दृष्टांतको अंगीकार नहीं करते तो उक्तनकादि योगोंमें व्यत्यास पढताहै तस्मात् सभी योगोंमें मुथशिल विचार भिन्न राशि वा एक राशिस्थ "हा होता ही है यह सिद्धांत हुआ ॥ ३६ ॥ अनुष्टु० - लग्नकार्य्यपयोरित्थशालेत्रैकोस्तिनीचगः || स्वर्क्षादिपदहीनोन्योऽवेंदु: कंबूलयोगकृत् ॥ ३७ || कंबूल योगकां भेद और प्रकारभी है कि प्रथम लग्नेश कार्येशमें से एकभी अपने अधिकारमें होकर स्थशिली होनेसे सम कहा, जो लग्नाधीश