पृष्ठम्:ताजिकनीलकण्ठी (महीधरकृतभाषाटीकासहिता).pdf/७२

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(६४) ताजिकनीलकण्ठी | वा कार्येश एक नीच राशिमें हो और दूसरा स्वर्शादि पदहीन अर्थात् सम द्रेष्काणादिकोंमें हों और चन्द्रमाभी पदहीन हो इन तीनहूंका परस्पर मुथशिल हो तोभी कंबूल योग होता है ॥ ३७ ॥ अनुष्टु० -तत्रकार्य्याल्पताज्ञेयायथाजात्यन्यमर्थयन् ॥ अन्यजातिपुमानर्थतथैतत्कवयोविदुः ॥ ३८ ॥ इस कंबूल भेदका फल दृष्टांत सहित कहते हैं कि, जैसे एक जाति दूसरे जातिवालेसे याचना करके स्वल्पलाभी होता है, तैसेही यह कंबूलभी स्व- ल्पलाभ देता है, प्रकट यह है जो यजमान ब्राह्मणको आपही बुलाकर देगा तो उसकी इच्छानुकूल देगा जो ब्राह्मण आपही जायकर मांगेगा तो यजमान स्वल्पही देगा, ऐसा फल इस कंबूलका कविजन कहते हैं ॥ ३८ ॥ अनुष्टु० - यस्याधिकारः स्वर्शादिशुभोवाप्यशुभोपिवा || केनाप्यदृश्यमूर्तिश्वसन्याध्वगइष्यते ॥ ३९ ॥ अब गैरिकंवूलके लक्षणके लिये प्रमम शून्य मार्गगत ग्रह लक्षण क हते हैं कि, जो ग्रह स्वगृह वा स्वोच्च वा स्वद्रेष्काण स्वनवांश में कोई भी शुभाधिकारी नहीं है तथा नीच शत्रु राश्यादि अशुभाधिकारी भी नहीं है, तथा ( पदहीन ) समद्रेष्काण हद्दा नवांशाधिकारीभी नहीं है, और उसपर पाप वा शुभ किसी ग्रहकी दृष्टि नहीं है तो वह ग्रह शून्याध्वग कहाता है ॥ ३९ ॥ अनुष्टु० - लग्नकार्येशयोरित्थशालेशून्याध्वगः शशी || उच्चादिपद् शून्यत्वान्नेत्थशालोस्यकेनचित् ॥ ४० ॥ यद्यन्य प्रविश्यैषस्व- क्षोंच्चस्थेत्थशालवान् || गैरिकंबूलमेतत्तृपदोनेनाशुभंस्मृतम् ॥ ४१ ॥ चन्द्रमा शून्य मार्ग हो और लग्नेश कार्येश एक वा दोनहूं ऐसेही शून्या ध्वग हो चन्द्रमा इनसे इत्यशाली तो नहो किंतु चन्द्रमा राश्यांतर अर्थात दूसरी ऐसी राशि में प्राप्त होनेवाला हो कि वह राशि जिसका स्वगृह वा जिसका उच्च हो वह ग्रह उसीमें बैठा हो अंशोंमें ऐसा हो कि चंद्रमा प्रवेश करतेही उस ग्रहसे इत्थशाली होजाय, इसप्रकार होनेमें गैरिकंबूल योग होता है, यहभी कंबूल भेदके तुल्य फल देता है, दूसरे जो अन्य राशिस्थ