पृष्ठम्:ताजिकनीलकण्ठी (महीधरकृतभाषाटीकासहिता).pdf/८

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(८). तांजिकनीलकण्ठी-भा० टी० ।. "ब्रह्मणागदितं भानोभनुना यवनाय तत् । यवनेनच यत्प्रोक्तं ताजिकं तत्प्रचक्षते " इति और टोडरानंद, खत खुत रोमक हिल्लाज घिषणा दुर्मुखाचार्य, इतने ताजि काचार्य्य हैं येभी तो ब्राह्मणहीथे इत्यादि प्रमाणसे ताजिकमें पारशीयशब्दोंका दूषण नहीं है कदाचित कोई कहै कि "नवदेद्यावनीं भाषां" इस धर्मशास्त्रोक वाक्यका खंडन होगया है तो मैंने खंडन नहीं किया. यह श्लोक तो सत्यही है परंच उसकी घटना काव्यालंकारादि विषयोंमें है पारशीयशब्दपक्ष में यहां तो “फले प्राप्ते मूले किं प्रयोजनम् ” यह न्याय है. आम खानेसे काम है न कि वृक्षगणनासे, जैसे पंकोद्भव कमल देवपूजाही और विषधर सर्प मस्तको द्धतमणि मुकुटयोग्य होता है ऐसाही यहां भी शास्त्र के प्रयोजन से प्रयोजन है. जाति द्वेष फलित शास्त्र में क्या ताजिकशास्त्र इस समयमें तात्पर्य फल बतलानेवाला है और गर्ग वचन है कि, "म्लेच्छा हि यवनास्तेषु सम्प शा मिदस्थितम् । ऋषिवत्तेपि पूज्यंते किंपुनर्वेद विद्विजाः” । और ग्रंथांतरीय कथानक है कि, किसीकालमें ज्योतिष शास्त्र के अनुसार ज्योतिप लोग भूत, भविष्य, वर्त्तमानकी बातें कहकर ईश्वरकी ईश्वरताको स्पर्द्धा करने लगे. यह दशा देख ब्रह्माजीने उन शास्त्रों के चमत्काररूपी किरणोंको शापानलसे छादित करदिया. इस दशा में श्री वसिष्ठादि मुनियोंने अपने प्रकाशित शा के योतन निमित्त ताजिकशास्त्रापेक्षा औरभी चमत्कृत बनाया. जिसको अष्टादश संहिताकारक आचायने अनेक प्रकारके ग्रंथ उन्हीं पारशीय शब्दोंको संस्कृत शब्द मणियोंमें ग्रथनकर प्रगट करदिया और मूल इसकाभी जन्मसमय प्रथमस्वासा लेने काही क्षण है. इसका विस्तार बृहज्जात- कानुवाद "महोघरी भाषा" के सूतिकाध्याय प्रारंभ में मैंने लिखा है अब इस ग्रंथ के सब प्रकारके हक हम अपनी प्रसन्नता से लोकहितार्थ प्रकाशित करनेको सेठ खेमराज श्रीकृष्णदासजी “श्रीवेंकटेश्वर"यन्त्रालयाध्यक्षकोसमर्पण किये हैं। . " आपका कृपाभिलाषी- टिहरीनिवासी ज्योतिर्विद् पं० महीधर शर्म्मा..