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१४१४ सुवग [ ४९ ( ताप तादृशान् पूजयतो निर्दूतान् अकुतोभयान् । न शक्ष्यं पुण्यं संख्यातुं पचन्मात्रमपि केनचित् ॥ १८ ॥ अनुवाद-पूजनीय क्रुद्धों, अथवा ( उनके ) अनुगसियों-जो संसार को अतिक्रमणकर गयें हैं, जो शोह भय रकट गये ==ी पूजा, ( या ) चन पैसे चुक औौर निर्भय (पुरुष) की पूजकै, धुण्यका परिमाण "इतना है"-यह नहीं कहा जा सकता। १४–बुद्धवर्ग समाप्त