१५५] षियवग ९७ । प्रमुवाद--अयोग(=अनासकि में अपनेको लगानेवाळे, योग (=आसकि )में न योग देनेवालेअर्थे (=वार्य ) छड प्रियका ग्रहण करनेवालै आमाङ्योगी (पुरुष)ी क्ष करे ( प्रियोंका सँग अत करो, और न कभी अभय ही ( का रंग करो ), फियोका न बँधना दुःखद होता है, और अग्रियोंका बेबना ( सी )। इस्खलिपे प्रिय व वनावे, प्रियका नाश डुरा ( कगता है ); उनके ( विछमें ) गाँठ नहीं पड़ती, जिनके प्रिय अप्रिय नहीं होते। केॐ सुझ्म्य २१२पियतो जायते सोको पियतो जायते मयं । पियातो विन्पमुत्तस्स नथि सोको कुतो भयं ? ॥४॥ ( प्रियतो जायते शोका प्रियतो जायते भयम्। प्रियतो विप्रमुकस्य नास्ति शोकः कुतो भयम् ?ाश्च) अनुवाद-प्रिय ( धन )से शोक डस्पन्न होता है, प्रियसे भय उत्पन्न होता है, नियकि बन्धन )ये जो शुक्क है, ब्ले शोक नहीं है, फिर भय कहॉ ( इौ ) जेनवन विशाखा (उणादिका ) २१३-पेमतो जायते सोको पेमतो जायते भयं । पेमतो विष्नुतस्स नथि सोको कुतो भयं ? ॥१॥ (प्रेमतो जायते शोकः प्रेमतो जायते भयम् । गंभतो विप्रमुक्तस्य नाऽस्ति शोककुतो भयम् ।
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