११० ॥ { १८l११ (मलं लिया। दुश्चरितं मात्सर्यं ददतो मलम् । मठं वै पापका धर्मे अस्मिन् लोके परत्र च ॥८॥ ) २४३–ततो महा । मलतरं अविन्आ परमं मतं । एतं मलं पहचान निम्मला होय भिक्खवो ॥६॥ ( ततो मलं मलतरं अविद्या परमं मलम् । एतत् मलं प्रहाय निर्मला भवत भिक्षवः ॥१।) अनुवाद--स्त्रीका मछ दुराचार है, कृपणता (= फसी ) दाताका मल है, पाष इस लोक और परछोक दोनों )से मछ है फिर मलमें भी सबसे यठा मछ-महासळ अविद्या है। है भिक्षुओो । इस ( अविया) मलको स्याग कर निर्भछ यरो । जतवन (चुल्छ ) शरी २४४-सुजीवं अहिरीकेन काकसून वंसिना । पक्वान्दिना पगब्मेन संकिलिन जीवितं ॥१०॥ (सुजीवितं अर्हकेण करेण ध्वंसिना । प्रस्कन्दिना प्रगल्भेन संक्लिष्टेन जीवितम् ॥१०) अनुवाद-( पापाचारी प्रति ) निर्लजफए समान (चार्येर्स) शूर, ( परहित-विनाशी, पतित, उच्पल और मलिन (पुरुष) जीवन सुखर्वक शीतता ( देखा जाता ) है। ॥ का जतवन ( घुल ) सारी २४५-हिरीमता च दुन्जीवं निञ्चं सुचिगवेसिना। अलोननव्यगमेन सुद्धानवेन पस्सता ॥११॥
पृष्ठम्:धम्मपद (पाली-संस्कृतम्-हिन्दी).djvu/१२१
एतत् पृष्ठम् अपरिष्कृतम् अस्ति