१८१९ ॥ भलवणो [ ११३ बैतवन पांच उपासक २११-मत्थि रागसमो अग्गि गत्थि दोससमो गहो । नयि मोइसमं जालं नयि तण्हासमा नदी ॥ १७ (नास्ति रागसमोऽलिभ च5स्ति वेषसमो हः । नाऽस्ति मोहसमें अलै, नऽस्ति कृष्ण समा नदी ॥१ ) अनुवाद-गके समान आग नहीं, बेषके समान अह (=भूत, बुछेक ) नहीं सोइके समान जल नहीं, तृष्णाके समान की नहीं। भयिनग ( जातिपावन ) भण्डक (अ४ ) २५२-मुबसं वजमब्लेसं अतनो पन खुद्दसं । परेको हि सो बीजानि ओोपुणाति यथामुकं । अत्तनो पन यदेति कलैि ‘व कितवा सो ॥ १८॥ (सुदर्श" धवमन्येष आत्मनः पुनर्मुर्दशम् । परेषां हैि न वद्यानि अवपुष्णाति यथातुषम्। आत्मनः पुनः छादयतिकलिमिव कितवाव् शठः ॥१८॥) अनुवाद--बूसरेका दोष देखना आसान है, किन्तु अपना ( दोष ) वैधता कठिन है, वक्ष (पुरुष ) चूसरोंके ही दोपको शुसकी अति डड़ता फिरता है, किन्तु आपने ( दोषों )को वैसे ही ढंकता है, जैसे शठ झुआरीले पालैको । जैतवन उज्ज्ञानसब्जी ( र ) २१३-पखजानुपस्सिस्स निव्वं उन्नसच्चिनो । आसवा तस वदन्ति शारा स शासवक्खया ॥ १६॥
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