१६ ॥ यमकवर्ग [ ३ ४-अकोच्छि मं अवधि मं अजिनि मं अर्हसि मे । ये तं न उपनय्हन्ति वेरं तेसूपसम्मति ॥ ४॥ (अक्रोशोव म अवधीत् मां अजैषीव मां अहार्षीव मे। ये तन् नोपनह्यन्ति वैरं तेऽपशाम्यति श्वा ) अनुवाद-'सुने गाली ड़िया’० ( पुंसा ) जो ( सनमें ) नहीं रखते उनका पैर शान्त हो जाता है । आवस्सी ( जतवन ) काली ( यत्रिखनी ) ५-न हि वैरेन वैरानि सम्मन्तीध कुदाचन । अवेरेन च सम्मन्ति एस घभ्म्मो सनन्तनो ॥३॥ (न हि वैरेण वैराणि शाम्यन्तीइ कदाचन । अवैरैण व शाम्यन्ति, एप धर्मः सनातनः ॥ ५॥ अनुवाद-- यहाँ ( सखारमें ) वैसे वैर कभी शान्त नहीं होता, अवैर से ही शान्त होता है, यही सनातन धर्म (=नियस) है। आवस्तौ ( जैतवन ) कोसम्बक सिद्धं ६–परे च न विजानन्ति मयमेत्य यममसे । ये च तस्य विजानन्ति ततो सम्मन्ति मेघगा ॥६॥ ( परे च न विजानन्ति वयमत्र यंस्यामः । ये च तत्र विजानन्ति ततः शाम्यन्ति मेधाः ॥ ६ ॥ अनुवाद—अन्य ( अझ छग ) नहीं जानते, कि हम इव ( संखार ) से जानेवाले हैं। जो इसे जानते हैं, फिर ( उनके ) सनक ( सभी विकार ) शान्त हो जाते हैं।
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