पृष्ठम्:धम्मपद (पाली-संस्कृतम्-हिन्दी).djvu/१५९

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२४ तण्हावग्गो । जेतुवन कपिछमछ ३३४-मतुजस्स पमत्तवारिनोतहापद्दतिमालुवा विय। सो प्लवती हुहुरं फलमिच्बं 'व वनम्मिं वानरो ॥१॥ (मनुजस्य प्रमतचारिणः कृष्ण बर्द्धते मालुवेत्र । स प्लवतेऽहरहः फलमिच्छन् इव घने चानः ॥१॥ अनुवाद –असत होकर आचरण धरनेवाळे मलायी तृण आजुबा | ( लता )की भाँति यह्ती , चनमें 'बानरकी भंति की इच्छा रते दिनोंदिन वह भटकता रहता है । १३१–यं एसा सहती जम्मि तदा लोके विभक्तिका । सोका तास प्रवदन्ति अभिवई 'व वीर्ये ॥२॥ (साहयति जन्मिनी कृष्णा लोके विपात्मिका । यं एषा शोकास्तस्य प्रबर्धन्तेऽभिवर्द्धमानं इव धीरणम् ॥ २॥ अनुवाद-यह ( यरायर ) जनमते रहनेवाली विपरूपी तृष्णा जिको पकड़ती है, वर्जनशील औरण (= घटाई यमानैका एक गुण ) की भाँति उसके शोक पवते हैं। १४८ ॥