२।२२] सण्हावग्ग [ १५७ जवन ७ सुक हैं (बिमल ज्ञानको ) अपने ही जानकर ( मैं अय ) किसको ( अपना शुरु ) थतयाउँ १ सक देवराज ३१४–सन्नदानं धम्मदानं जिनाति सव्वं रासं धम्मरसो जिनाति । सनं रतिं । धम्मरती जिनाति तण्हक्खयो सम्बदुक्खं जिनाति ॥२१॥ ( सर्घदानं धर्मदानं जयति सर्वं रजो धर्मरसो जयति । सवीं एतं धर्मरतिर्जयति तृष्णाक्षयः सर्वदुग्धं जयति ॥ २१ ॥ अनुवाद--धर्मका दान सारे द्वानोंले यज्ञकर है, धमॅरख सारे सोसे अबक है, धर्ममें रति सय रतियोले यद्वकर है, तृष्णाका विनाश सारे दुःखको जीत लेता है। ( स्भपुत्र भेटी ) ३१५-इनन्ति भोग दुन्मेषं नो चे पारगवेसिनो । मोगतह्य दुम्मेघो हन्ति अज्लेष अत्तनं ॥२२॥ (मन्ति भोगा दुर्मेधसै न चैव पारगवेषिणः । भोगतृष्णया दुर्मेधा इत्यन्य इवात्मनः ।। २२ । ) अनुवाद-(संसारको ) भार होनेकी कोशिश न करनेवाले दुईद्धि (पुरुष )को भाग नष्ट करते हैं, भौगी तृष्णामें पडनर (वह) इऍद्धि परायैी भाँति अपने हीको हनन करता है। जैतवन
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