पृष्ठम्:धम्मपद (पाली-संस्कृतम्-हिन्दी).djvu/१७९

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१६८] धम्मपदं [ २५२३ अनुवाद-( जो ) अपने ही आपको प्रेरित करेग, अपने ही आपके सग्न करेगा; वह आमशुरु (=अपने द्वारा रक्षित ) सूति-संयुक भिश्च सुबसे विहार करेगा । ३८०-श्रत्ता हि अत्तनो नाथो अत्सा हि अत्तनो गति । । तस्मा सब्जमयत्तानं अस्सं भद्रव वाणिजो ॥२१॥ ( आत्मा ह्यात्मनो नाथ आत्मा ह्यात्मनो गतिः । तस्माद संयमयात्मानं अश्व' भद्रमिव वणिक् ॥२१॥ अनुवाद--( सल्थ्य ) अपने ही अपना स्वामी है, अपने ही अपनी एँ गति है, इसलिये अपनेको संयमी यनावेजैसे कि सुन्दर धोखेको थनिया ( संयत करता है ) । राजगृह ( वेणुवन ) वकळेि ( थे) ३८१–पामोल्लबहुलो भिक्खू पसन्नो बुद्धसासने । अधिगच्वे पहुं सन्तं सखारूपसमं सुखं ॥१२॥ (प्रामोद्यवहुलो भिक्षुः प्रसन्नो शुद्धशासने । अधिगच्छेत् पदं शान्तं संस्कारोपशमं सुखम् ॥२२ अनुवाद-उद् उपवेशनं प्रखम यहुत ममोड्युक मिश्च संस्कारोंको उपशमन करनेवाले मुग्मय शान्त्र पदक प्राप्त करता है। आवस्ती ( पूर्वोरम ) सुमन ( सामनेर) ३८२–यो ह वै दहरो भिक्खू युञ्जते । शुद्धसामने । सो इमं लोकं पभासेति अज्मा मृतो 'ख चम्न्दिमा ॥२१॥