१७२ ] [ २६१ आवस ( पूर्वाराम ) आनन्द (थेर) ३८७-दिवा तपति आकिञ्चो रति आभाति चन्दिमा । सन्नद्धो खत्तियो तपति आयी तपति ब्राह्मणो । अथ सव्वमरतिं बुद्धौ तपति तेजसा ॥३॥ (दिबा तक्त्यादित्यो राधाबाभाति अन्द्रभा । स्खलद्धः क्षत्रियस्तपति ध्यायी तपति ग्रहण । अथ सर्वमहोरात्रं शुद्धस्तपति तेजसा ॥५) अनुवाद-विषमें सूर्य खपता रागको चन्द्रमा प्रकाशता , है, कवचयड ( होनेपर) क्षत्रिय सपता है, यानी (होनैपर) माझण तपता है, और खुद्ध रातदिन ( अपने ) तेजसे सय ( से अधिक ) तपता है। ( कई प्रमजित ) ३८८-वाहितपापो ‘ति ब्राह्मणो समचरिया समयोति पृच्वति । पक्वामयमत्तनो मतं तस्मा पञ्वनितो' ति वुञ्चति ॥६॥ (वाहितपाप इति ब्राह्मणः समचर्यरश्रमण इत्युच्यते । शत्रजयजोऽऽत्मनो मलं तस्मात् प्रव्रजित इत्युच्यते ॥२) अनुवाद–जिसने पापफो ( धोकर) व्रिया वह प्राह्ण है, जो यहा समताका आचरण करता है, वह (असण समण == संन्यासी ) , (चूंकि) उसने अपने (वित्त) अछको हटा दिया, इसीलिये बाह प्रस्रजित कहा जाता है।
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