२६८ बाणवर्गो [ १७३ चतवन सारिपुत ( पेर) ३८६-न ब्राह्मणस्स पहरेय नास्स मुंचेय ब्राह्मणो । वि ब्राह्मणस्स हन्तारं ततो वि यस्स मुवति ॥७॥ (न ग्रहणं प्रहरेत् नाऽस्मै सुब्बेद् ग्रह णः । धिग् ब्राह्मणस्य हन्तारं ततो विर् यल्मै ति ॥७॥ ) अनुवाद--आह्मण (=मिष्पाप ) पर प्रहार नहीं करना चाहिये, और । चाणको भी उस ( प्रदारवाता ) पर (प ) नहीं करना चाहिये, मह्मणको जो भारता है, उसे धिक्कार है, और धिक्कार उसको भी है, जो ( चषके ळिये ) कोष करता है । ३६ ०-न ब्रह्मणस्सेतकिष्वि सेय्यो यदा निसेघो मनसो पियेहि । यतो यतो हिंसमनो निकृत्तति ततो ततो सम्मति एव दुक्खं ॥८॥ (न आह्मणस्यैतद् आकिचित् श्रेयो य निषेधो मन प्रियेभ्यः । यतो यतो दैत्रमनो निवर्तते ततस्ततः शाम्यत्येच दुःखम् ॥८॥ ) अनुवा–आहणके लिये यह बात फस कल्याणकारी ) नहीं है, । जब वह प्रिय ( पदार्थ से अनको हटा लेता है, जो बहाँ सन हिंसे सुचता है, वहाँ वहाँ दुभव ( अवश्य ) ही प्रान्त हो जाता है ।
पृष्ठम्:धम्मपद (पाली-संस्कृतम्-हिन्दी).djvu/१८४
एतत् पृष्ठम् अपरिष्कृतम् अस्ति