२६१३ ॥ अत्रणवस्य [ १७५ अनुवाद--- जटासे, न गोत्रसे; न गन्ससै ब्राह्मण होता है, जिसमें सरय और धर्म हैं, षही, अचि (=पवित्र ) है, औौर आeण है । वैशाखी ( गारशा) ( पाखडी शाखण ) ३६४-किं ते जटाहि दुम्मेष । किं ते अनिसाख्याि । अकमन्तरं ते गहनं वाहिर परिमज्जसि ॥ १२॥ (कि ते जटाभिः दुर्मेध ! किं तेऽजिनाव्या। आभ्यन्तरं ते गहनं वाहिर परिमार्जयसि १ १२) अनुवाद है हुईंब! जटाखोसे तेरा क्या ( बनेगा ), (और) सुग चमेकै पद्वितैसे तेरा क्या ? भीतर (विछ ) तो तेरा ( शग आदि अलोंसे ) परिपूर्ण है, बाहर या धोखा है? राजगृह ( भक्षुट) क्साि गौतमी ३६१-पंसुकूलधरं जन्तुं किसी धमनिसन्थतं । एकं वनस्मि सायन्तं तमहं बूभि ब्राह्मणं ॥१३॥ (पांशुकुळधरं जन्तुं कृशं धमनिसन्ततम् । एकं वने ध्यायन्तं तमहं ब्रवीमि ब्राह्मणम् ॥२३॥ अनुवाद-“यो प्राणी फटे चीयको धारण करता है, जो ङया पतछा और नसोंडे अड़े शरीरवाता है, जो अबेला धनमें ध्यानरत रहता है, उसे मैं ग्रहण कहते हैं।
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