२६॥३२ ॥ महणवग्गो [ १८३ जैतुबन चन्दाम (येर) ३१३-बन्दैव विमलं शुद्धं विष्पसत्रमनाविलं । नन्दीभवपरिक्षीणं तमहं चूमि ब्राह्मणं ॥३१॥ (बन्द्रमिव विमलं शुद्धं विप्रसत्रमननाबिछम् । बन्दीभवपरीक्षीणं तमहं ब्रवीमि ब्राह्मणम् ॥३१) अनुवाद--ओ । चन्द्रभाकी भाँति विमक, शैव, व=अनाविल , ( तथा जिसकी ) सभी जन्मोकी कृष्णा नष्ट हो गई है, उसे मैं हूण कहता हैं। कुण्डिया (कोलिय ) सौवडि ( थेर) ३१४–यो इमं पळिपयं दुर्गं संसारं मोहमवगा। तिएणो पारगतो झायी अनेन अयंकया । अनुपादाय निन्दुतो तमहं बूमि ब्राह्मणं ॥३१॥ (य इमं प्रतिपथं दुर्ग संसारं मोहमत्यगात्। तोः पारणतो ध्यायनेऽकथंकथी। अनुपादाय निर्धेत तमहं ब्रवीमि ब्राह्मणम् ॥३२॥ ) अनुवाद-जिसने इस दुर्गस संसार(=इन्स सरण )के चहुरमें डालने वायै भइ रूपी ) उछटे आऍको त्याग दिया, जो ( संसारसे ) पारंगत, यानी तथा तीर्ण (=तर गया ) हैसे मैं श्रावण कहता हूँ।
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