पृष्ठम्:धम्मपद (पाली-संस्कृतम्-हिन्दी).djvu/२३

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१२ ] धम्मपदं [ २५ अनुवाद-प्रसाद (=आठस्य ) न करना सूतपद है, और प्रसाद (फरदा ) सूव्युपद। अप्रसावी ( वैसे ) नहीं करते, जैसे कि प्रमादी भरते हैं। पंडित लोग अप्रमादके विषयमें इस प्रकार विशेपतः जान, आयकि आचरणमैं रत हो, अभ्रमाढमें प्रमुदित होते हैं । ( जो ) वह निरन्तर ब्यानरत निरय इदं पराक्रमी हैं, वह और अनुपम योग-क्षेम (आनन्द मंगळ ) वाले निर्वाणको प्राप्त करते हैं। राजगृह ( वेणुवन ) २8-उद्यानवतो मतिमतो क्षु विचकम्मस्स निसम्मकारिणो सनतस्स च धम्मजीविन ध्रप्प मुत्तस्स यसोऽभिवदति ॥॥ ( उत्थानवतः स्मृतिमतः शुचिकर्मणो निशम्यकारिणः। संयतस्य च धर्मजीविनोऽप्रमतस्य यशोभिवर्द्धते ॥४॥) अनुवाद--( जो ) उद्योगी, सचेत, शुचि कर्क्सवाछ, तथा खोचकर काम करनेवाला है, और संयत, धर्मानुसार जीविकावाला पुव अप्रभावी है, ( उसका ) अषा थड़ता है । राजगृद ( घेणुबन ) जुछपन्थः ( पैर ) २५-उठानेनप्पमादेन सञ्चमेन दमेन च । हीपे कयिराय मैधावी ये ओघो नाभिकीरति ॥४॥ उत्थानेनाऽप्रमादेन संयमेन दमेन च । डीपं कुर्यात् मेधावी ये ओघो नाभिकिरति ॥५)