१६ ] धम्मपदं [ श७० (प्रमामप्रमादेन यदा शुदति पण्डितः । अप्रासादमारुह्य अशोकः शोकिन प्रजाम् । पर्वतस्य इव भूमिस्थान धीरोबाळानअवेक्षते ॥८॥ अनुवाद—पंडित जव अप्रसाद प्रसादको इटता है, तो निःशोक हो शोकाकुछ प्रजाको, प्रशारूपी प्रासादपर चढ़कर बैसे पर्वतपर खरा (पंप ) भूमिपर स्थित ( वत ) को बेचता है–( जैसे ही) धीर ( पुरुप) अज्ञानियोको ( देखता है )। दो मित्र भिश्च २६–अप्पमतो पमत्तेसु सुतेषु बहुजागरो । अवलम्बी ‘व सीधस्सो हित्वा याति सुमेघसो ॥८॥ (अप्रमत्तः प्रमत्तेषु सुप्तेषु सृजागरः । अबळाश्वमिव शीघ्राश्वो हित्वा याति सुमेधाः ॥९॥ अनुवाद--प्रसाद्वियोंके बीचमैं अप्रभावी, सोतोंके थीचमैं यहुत जागनेवाल, अच्छी डुबिवाछा (पुर्व)=जैसे विउँछ घोलेको ( पीछे ) छोड शीघ्रगामी घोड़ा (आगे) चछा जाता है ( वैसे ही जाता है )। वैशली ( भूटागार) ३०-अष्पमादेन मघवा देवानं सेठतं गतो । अष्पमाई पसंसन्ति पमादो गरहिते सदा ॥१०॥ (अप्रमादेन मघवा देवानां श्रेष्ठतां गतः । अप्रमोदं प्रशंसन्ति प्रमादो गर्हितः सदा ॥१०॥
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