पृष्ठम्:धम्मपद (पाली-संस्कृतम्-हिन्दी).djvu/३७

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२६ ] धम्मपदं [ २४ अनुवाद-घ्छी सुगंध इवासे उलटी ओर वहीं जाती, न चन्वुन, तगर या चमेली ( की गंध ही वैसा करती है); किन्नु सजनी सुगध इवाळे उलटी ओर जाती है समुज्य सभी दिशाओं सुगंघ ) चहाते हैं। ५५-वदनं तगरं वापि उप्पलं अथ वस्सिी । एते गन्धनातानं सीलगन्धो अनुत्तरो ॥१२॥ (चन्दनं तगरं वापि उत्पलं अथ वार्षिकी । एतेषु गन्धजाणान शीलमन्थोऽनुत्तरः ॥१२ ) अनुवाद-“चन्द्ल था तगर, कमल था ही, इन सभी (की) सुष सै सदाचारकी सुगध उत्सस है। राबजूई ( वेणुवन ) १६-शष्पमत्तो अयं गन्धो या'थं तगरचन्दनी । यो च सीलवतं गन्धो वाति देवेशु उत्तमो ॥१३॥ (अल्पमात्रोऽयं शन्धो योऽयं तगरस्चन्दनी। यश्च शीलवतां गन्धो वाति देवेषु उद्यमः ॥१३ ॥ ) अनुवाद–सगर र थन्ड्रनकी जो यह गंध फैलती है, वह अप मात्र है, और जो यह सदाचारियोी गंध , (वह) उत्चम (गंज ) देवताओंमें फैछती है । राजगृह ( वेणुवन ) १७-तेसं सम्पन्नमीलनं अष्पमाविहारिनं । सम्मद्ब्लाविमुत्तानं मारो मग्गं न विन्दति ॥१४॥ मशकस्सप गोषिक (वर)