पृष्ठम्:धम्मपद (पाली-संस्कृतम्-हिन्दी).djvu/४१

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३० ॥ धम्मपर्व [५७ आवस्ती ( जेतवन ) उदायी ( थेर) ६8ध्यावनीवम्षि चे बालो पण्डितं पयिरुपासति । न सो धम्मं विजानाति दवी सूपसं यथा ॥१॥ (यावज्जीवमपि चेद् बालः पंडितं पर्युपास्ते । न स धर्म विजानाति दर्वी सुपरसं यथा ॥५) अनुवाद--चाहे याल ( == जब ; अज्ञ ) जीवन भर पंडितकी सेवामें " रहे ( तो भी ) वह धर्मफो ( वैसे ही ) नहीं जान सकता, जैसे कि कशी (= डुब्बी = यी ) युष (= डुछ आदि ) के रसको । आवस्ती ( बेसवन) भद्रबगीय ( भिक्षुकंग) ६५-भृङ्कतमपि चे विलू परिडतं पयिरूमासति । खिप्यं धम्मं विजानाति जिह्वा सूपरसं यथा ॥६॥ (मुहूर्तमपि चेद् विश पंडितं पर्युपास्ते । क्षिप्रं धर्मं विजानाति जिह्वा सुपरसं यथा ॥३) अनुवाद-चाहे विशदा (पुरुष) एक मुहूर्व ही पविती सेवामें

  • रहे, (तो भी वह शीघ्र ही घर्मको जान सकता है, जैसे

ङ्गि जिल्ला सूपकै रसको । रामगृह ( वेणुबन ) सुप्पबुद्ध (4ी ) ११-चरित वाला दुम्मेधा अमितेनेव अत्तना । कन्सो पापकं कम्मं यं होति कटुकम्फलं ॥७॥ (चिरन्ति घाला दुर्मेधसोऽमित्रेणैवात्मना । कुर्वन्तः पापकं कर्म यद् भयति कटुफफळम् )