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(३ १० ) नारदसंहिता। ग्रहका योग तथा दृष्टिकरके चंद्रमा उसग्रहके शुभ अशुभ फल को धारण करता है और उन दोनोंसे हीन होय तब चंद्रमा केवल अपना ही फल करता है । १७ ॥ आदौ संपूर्णफलदं मध्ये मध्यफलप्रदम् । अन्ते तुच्छफलं लग्नं सर्वास्मिन्नेवमेव हि ॥ १८ ॥ लग्न, आदिमें संपूर्ण फल करता है मध्यमें मध्यफल और अंतमें लग्ल बहुत थोड़ा फल करता है ।। १८ ।। सर्वत्र प्रथमं लग्नं कर्तुश्चंद्रबलं ततः ।। कन्यान्य इंदौ बलिनि संत्यन्ये बलिनो ग्रहाः ॥१९॥ सब जगह पहले लग्नबल देखना फिर कर्त्ताको चंद्रबल देखना कन्याके विना अन्यराशिका चंद्रमा बलवान् होय तो सभी ग्रहबल वान जानने ।। १९ ।। चंद्रस्य बलमाधारआधेयं चान्यखेटजम् ॥ आधरभूतेनाधेयं दीयते पारिनिष्ठितम् ।। २० ।। चंद्रमाका बल आधार है और अन्यग्रहका बल आधेय है । अर्थात् चंद्रमाके बलके आश्रय है आधाररूप चंद्रबलसे आधेय की रक्षा कीजाती है । २० ॥ स चेंदुः शुभदः सर्वग्रहाः शुभफलप्रदाः ॥ अशुभश्चेदशुभदः वर्जयित्वा दिनाधिपम् ॥ २१ ॥ चंद्रमा शुभदायक हो तो सब ग्रह शुभफल दायक जानने और अशुभ हो तो अशुभही परंतु सूर्यकी यह व्यवस्था नहीं है ॥ २१ ॥