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• • भाषाटीकास ०-अ० २०, (१२३ ) सूतकांते नामकर्म विधेयं स्वकुलोचितम् ॥ नामपूर्वं प्रशस्तं स्यान्मंगलैश्च शुभाक्षरैः ॥ १ ॥ सूतकके अंतमें अपने कुलके योग्य नामकर्म करना चाहिये और नामके आदिमें शुभमंगलीक अक्षर हो वह नाम श्रेष्ठ कहा है। । ३ ॥ देशकालोपयाताद्यैः कालातिक्रमणं यादि॥ अनस्तगे भृगावीज्ये तत्कार्यं चोत्तरायणे ॥ २ ॥ देशकालकी व्यवस्थाके अतिक्रमणसे सूतकके अंतमें बारहवें दिन नामकरण नहीं होसके तो गुरु शुक्रका अस्त नहीं हो और उत्तरायण सूर्ये हो । २ । चरस्थिरमृदुक्षिप्रनक्षत्रे शुभवासरे ॥ चंद्रताराबलोपेते दिवसे च शिशोः पिता ॥ ३ ॥ चर, स्थिर, मृदु, क्षिप्रसंज्ञक नक्षत्र हो शुभ बार होवे और चंद्रमा तथा तारा बलसे युक्त दिन हो तब बाळकका पिता ।।३।। शुभलग्ने शुभांशे च नैधने शुद्धिसंयुते ॥ लग्नेंत्यनैधने सौम्ये संयुते वा निरीक्षिते ॥ ४ ॥ इति श्रीनार०संहिताय नामकरणाध्यायोऽविंशतितमः २ शुभ लग्न में शुभ राशीिके नवांशकमें अष्टम स्थान शुद्ध होय और लग्न, द्वादश, अष्टमस्थानमें शुभग्रह स्थितहों अथवा शुभग्रहोंकी दृष्टि हो तब नामकरण कर्म करना योग्य है ।। ४ ॥ इति श्रीनारदीयसंहिताभाषा०नामकरणाध्यायो विंशतितमः २०॥ ॐ A नष्ट करने लिए