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( १२६ ) नारदसंहिता । उत्तरायण सूर्य हो, गुरु शुक्रका अस्त नहीं हो पूर्णमासी, रिक्ता तिथि इनको त्याग दे शुक्र, बुध, बृहस्पति, चंद्रवार ये शुभहैं ।। २ ।। दस्रादितीज्यचंद्रेद्रपूषाभानि शुभान्यतः ॥ चौलकर्माणि हस्तर्क्षास्रीणित्रीणि च विष्णुभात् ॥ ३॥ पट्टबंधनचौलन्नप्राशने चोपनायने । शुभदं जन्मनक्षत्रमशुभं त्वन्यकर्मणि ॥ ४ ॥ अश्विनी, पुनर्वसु, पुष्य, मृगशिर,ज्येष्ठारेवती ये नक्षत्र शुभ हैं और चौलकर्ममें हस्त नक्षत्रसे तीन नक्षत्र अथवा श्रवणसे तीन नक्षत्रों तक जन्मनक्षत्र होय तो चैौल कर्म, पट्टबंधन, अन्नप्राशन, उपनयन कर्म इनमें शुभदायक है अन्यकर्ममें जन्मनक्षत्र अशुभ जानना ।। ३ ॥ ४ ॥ अष्टमे शुद्धिसंयुते शुभलग्ने शुभांशके । न नैधने भे शीतांशौ षष्ठेन्ये तु विवर्जयेत् ॥ ६ ॥ शुभलग्न शुभ नवांशक अष्टमस्थान शुद्ध अर्थात् ८वें स्थानमें कोई यह नहीं हो और ६ । ८ ५ १२ चंद्रमा नहीं हो ।। ५॥ धनत्रिकोणकेंद्रस्थैः शुभैरूयायारिगैः परैः । अभ्यक्ते संध्ययोर्नीते निशि भोक्तुर्न चाहवे ॥ ६ ॥ शुभग्रह २ । ९ । ५।१। ४। ७ । १ ० इन घरोंमें हों और क्रूर यह ३ । ११ । ६ घरोंमें से तब तेल आदिकी मालिश करके क्षौरकर्म कराना शुभ है तथा संध्यासमय, ओज नका अंत, रात्रि, युद्ध इन्होंमें क्षौर नहीं कराना ॥ ६ ॥