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(१३२) नारदसंहिता । - का दिनमानके तीन विभागकरके तहां पहिले भागमें देवकर्मं, दूसरे विभागमें मानुषकर्म,तीसरे विभागमें पितृकर्म करना योग्य है।।।। स्वनीचगे तदंशे वा स्वारिभे वा तदंशके | गुरौ भृगौ च शाखेशे कुलशीलविवर्जितः ॥ १९ ॥ स्वाधिशत्रुगृहस्थे वा तदंशस्थेथवा व्रती । शाखेशे वा गुरौ शुक्रे महाघातककृद्भवेत् ।। १६ ॥ । बृहस्पति, व शुक्र तथा शाखेश अर्थात् ऋग्वेद आदिकोंके अधिपति बृहस्पति आदि ४ वार कहे हैं उनमेंसे जिस वेदका मत हो वही शाखेश है जैसे ऋग्वेदियोंका गुरु,यजुर्वेदियोंका शुक्र सामवेदियोंका मंगल, अथर्ववेदियोंका बुध जानना ऐसे इन ग्रहोंमेंसे यथाक्रमसे अपनी नीचराशिपर हो वा नीचांश अथवा शत्रुके घरमें वा शत्रुराशिके नवांशकमें हो तब उपयनसंस्कार करावे तो अपने पूर्ण शत्रुके घरमें स्थित अथवा शत्रुकी राशिके नवांशकमें स्थित शाखेश तथा भृङ, शुक्र होय तब उपनयन कराये तो महाघात पुरुष हो ॥ १५ ।। १६ ।। स्वोच्चसंस्थे तदंशे वा स्वराशौ राशिगे गणे । शाखेशे वा गुरौ शुक्रे केंद्रगे वा त्रिकोणगे ॥ १७ ॥ अपनी उच्चराशिमें स्थित अथवा उच्चराशिके नवांशकमें अथवा अपनी राशिमें स्थित शाखेश होवे तथा बृहस्पति, शुक्र भी इसी प्रकार स्थित होवे अथवा लग्नसे केंद्रमें तथा त्रिकोणमें (९ । १ ) गुरु शुक्र होवे तब उपनयन संस्कार करावे तो ॥ १७ ॥