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( १५२ ) नारदसंहिता । लक्षण कहा और बाकी रहे २० दोषकेभी लक्षण कहते हैं ॥ २२ ।। २३ ।। २४ ।। २५ ।। २६ ।। लग्नलग्नांशके स्वस्वपतिना वीक्षितौ शुभौ ॥ न चेद्रान्योन्यपतिना शुभामित्रेण वा तथा॥ २७॥ वरस्य मृत्युः परमो लग्नद्यूननवांशकौ ॥ नैवं तैर्वीक्षितयुतौ मृत्युर्वध्वाः करग्रहे ॥ २८ ॥ लग्न और लग्नका नवांशक ये दोनों अपने २ स्वामीसे दृष्ट होवैं तथा युक्त होवें तो शुभ है अथवा आपसमें परस्पर पतिसे तथा शुभ मित्र ग्रहसे दृष्टयुक्त होवें तो भी शुभ है, और लग्न तथा लग्नमें सप्तम घर तथा इन घरोंके नवांशकोंके स्वामी लग्न तथा सप्त म घर को देखते नहीं हो और दृष्टिभी नहीं करते हों तथा इनके शुभ मित्रभी दृष्टि नहीं करते होवें तो उस लग्नमें विवाह किया जाय तो वरकी तथ कन्याकी मृत्यु होती है। लग्नकी शुद्धि नहीं होनेते वरकी मृत्यु और सप्तमकी शुद्धि नहीं होने से कन्याकी मृत्यु होती है ऐसे यह उदयास्त शुद्धि रहित दोषका लक्षण है।।२७।२८।। त्याज्या सूर्यस्य संक्रांतिः पूर्वतः परतः सदा ॥ विवाहादिषु कार्येषु नाड्यः षोडशषोडश ॥ २९॥ सूर्यकी संक्रांति अर्के उससे १६ घड़ी पहली और १६ घडी पीछेकी त्याग देनी चाहिये यह विवाहादिकोंमें अशुभ कही हैं यह संक्रांति दोषका लक्षण है ।। २९ ।।। का & •