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(१६० ) नारदसंहिता । प्रव्रज्या रविपुत्रेण राहुणा कलहः सदा ॥ केतुना संयुते चंद्रे नित्यं कष्टं दरिद्रता ॥ ४९ ॥ शनिक साथ हो तो संन्यास धारण हो, राहुका साथ हो तो कलह, केतुके साथ चंद्रमा हो तो सदा कष्ट दारिद्रता होवे ।। ४९ ।। पापद्वययुते चंद्रे दंपत्योर्मरणं भवेत् ॥ पापग्रहयुते चंद्रे नीचस्थे राहुराशिगे ॥ ९९ । । दो पापग्रहोंसे युक्त चंद्रमा हो तो कन्या वरकी मृत्यु हो चंद्रमा पापग्रहोंसे युक्त हो नीचा हो राहुकी राशिषर हो तो ॥ ५० ॥ दोषायनं भवेल्लग्नं दंपत्योर्मरणप्रदम् । स्वक्षेत्रगः स्वोच्चगो वा मित्रग्रहगतो विधुः ॥ ६१ ।। वह लग्न दोषोंका स्थान होजाता है स्त्री पुरुषी मृत्यु करता है और अपने क्षेत्रमें चंद्रमा हो तथा अपनी उच्चराशिका अथवा अपने मित्रके धर्में हो तो ॥ ५१ ॥ युतिदोषाय न भवेद्दंपत्योः श्रेयसे तदा । दंपत्योः षष्ठगं लग्नं त्वष्टमो राशिरेव च ॥ ५२ ॥ यदि लग्नगतः सोपि दंपत्योर्मरणप्रदः ॥ स राशिः शुभयुक्तोपि लग्नं वा शुभसंयुतम् ॥ । ५३ ॥ । युतिदोष नहीं होता स्त्री पुरुषको शुभदायकहै स्त्री पुरुषकी लग्नसे आठवी राशिका लग्न हो अथवा स्त्री पुरुषकी राशिसे आठवीं राशिका लग्न हो तो स्त्री पुरुषकी मृत्यु होती है वह राशि तथा लग्न शुभ ग्रहोंसे युक्त हो तोभी अशुभ है ॥ ५२ ॥ ५३ ॥