पृष्ठम्:नारदसंहिता.pdf/१६८

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भाषाटीकास ०-अ० २९, (१६६ ) लग्न विवर्जयेद्यत्नात्तदंशांश्च तदीश्वरान्। दंपत्योर्द्वादशं लग्नं राशिर्वै यदि लग्नगम् ।। ९४ ।। उस लग्नको यत्नसे वर्ज देवे तिसके नवांश और तिसके स्वामी भी अशुभ होते हैं स्त्री पुरुषकी राशिका लग्न हो अथवा उनके जन्म लग्नसे १२ राशि लग्न होवे तो ॥ ५४ ॥ अर्थहानिस्तयोर्यस्मात्तदंशस्वामिनं त्यजेत् ॥ जन्मराश्युद्गमे चैव जन्मलग्नोदये शुभा ॥ ६५॥ तयोरुपचयस्थाने यदा लग्नं गतं शुभम् । खमार्गेणा वेदपक्षाः खरामः शून्यसागराः ॥ ९६ ॥ । वार्द्धिचंद्रा रूपदस्राः खरामा व्योमबाहवः । द्विरामाः खाग्नयः शून्यदत्स्रकुंजरभूमयः ॥ ४७ ॥ द्रव्यकी हानि होतींहै इसलिये तीन लग्नोंके नवांशकके स्वामी ग्रहोंको लग्नमें त्याग देवे और जन्मकी राशिपर तथा जन्मलयपर शुभ ग्रह होवें और तिन्होंसे उपचय स्थानमें (३।११।५) लग्न हो तो शुभ है यह राशिदोष कहा है अब विषघटी दोष कहते हैं अश्विनीनक्षत्रमें ५० घडी, भरणीमें २४, कृत्तिकामें ३० रोहिणीमें, ४० घडी, मृगशिरमें १४, आर्द्रामें २१, पुनवर्सुमें ३०, पुष्यमें २०, आश्लेषामें ३२, मघामें ३०, पूर्वोफा ० २०, उत्तराफा ० १८ घडी ॥ ५५ ॥ ५६ ॥ ५७ ॥ रूपपक्षा व्योमदस्रा वेदचंद्राश्चतुर्दश । शून्यचंद्रा वेदचंद्राः षट्पंच वेदबाहवः ॥ ९८॥ ११