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( १६२) नारदसंहिता। A७ शून्यदस्राः शून्यचंद्राश्शून्यचंद्रा गजेंदवः ॥ तर्कचंदा वेदपक्षाः खरामाश्चाश्विनीक्रमात् ॥ ४९ ॥ हस्तमें २१, चित्रा २०, स्वाति १४, विशाखामें १४, अनुराधा १०, ज्येष्ठा १४, मूल ५६, पूर्वाषाढमें २४, उत्तराषाढमें २०, श्रवण ० १०धनिष्ठामें १०, शतभिषा ० १८, पूर्वाभाद्र०१६, उत्तराभा० २४, रेवतीमें ३० घड़ी ऐसे अश्विनी आदि नक्षत्रोंकी ये घड़ी कही हैं ।। ५८ ॥ ५९ ॥ आभ्यः पराःस्युश्चतस्रो नाडिका विषसंज्ञिकाः॥ विवाहादिषु कार्येषु वर्ज्यास्ता विषनाडिकाः॥ ६० ॥ सो इन घड़ियोंसे परली चार घड़ी विषसंज्ञक हैं जैसे रेवतीकी ३० घड़ी की तो तीससे आगे ३४ तक चार घड़ी विषघटी जाने ऐसेही सब नक्षत्रोंमें जानलेना ये विषघटी विवाहादिक कार्योंमें वर्जित हैं ॥ ६० ॥ ऋक्षाद्यंतघटिमितं विषमानेन ताडितः।। षष्टिभिर्हरते लब्धं पूर्वऋक्षेण योजयेत् ॥ ६३ ॥ जो नक्षत्र परी साठ ६०घड़ीका नहीं हो तहां ऐसे करना कि नक्षत्रके ध्रुवांककी घड़ियोंको नक्षत्रके भोगकी घड़ियोंसे गुन लेवे फिर साठ ६०का भाग देवे फिर जितनी घड़ी लब्ध हों उतनीकेही उपरांत विषघटी प्राप्त हुई जाननी ॥ ६१ ॥ इति विषघटी ॥ भास्करादिषु वार्ज्या मुहूतश्च निंदिताः । विवाहादिशुभे वर्ज्य अपि लग्नगुणैर्युताः ॥ ६२ ॥