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भाषाटीकास०-अ० २९. ( १६३ ) सूर्यादिकवारोंमें जो निंंदित मुहूर्त कहे हैं वे लग्नके गुणोंसे युक्त होवें तौ भी विवाहादिक शुभ कार्यों में वर्ज देने चाहियें ॥ ६२ ।। ते वर्ज्या यदि तल्लग्नगुणैर्युक्ताश्च निंदिताः ॥ ६३ ॥ वे वारोंके दुष्टमुहूर्त वर्जनेही योग्य हैं जो वह उन गुणोंसे युक्त हो तौ भी वे दुष्ट मुहूर्त तो निंदितही कहे हैं । ६३॥ वारमध्ये तु ये दोषाः सूर्यवारादिषु क्रमात् ॥ अपि सर्वगुणोपेतास्ते वर्ज्याः सर्वमंगले ॥ ६४ ॥ और सूर्यवारादिकॉमें क्रमसे जो वारदोष कहे हैं वे संपूर्ण गुणोंसे युक्त हों तो भी सब मंगलकर्मों में वर्ज देने चाहिये।। ६४ ।। एकार्गलः समांघ्रिश्चेत्तत्र लग्नं विवर्जयेत् ॥ ६८॥ और खार्जूरिक योग एकार्गल दोष को कहते हैं वह समांघ्रीज होवे अर्थात् सूर्य चंद्रमाके योगसे सम अंकमें देखना कहा है उसमें एकार्गल दोष आता होवे तो उस नक्षत्रमें विवाह लग्न नहीं करना ।। ६५ ।। अपि शुक्रेज्यसंयुक्ता विषसंयुक्तदुग्धवत् ॥ ग्रहणोत्पातभं त्याज्यं मंगलेषु त्रिधाऽशुभम् ॥ ६६ ॥ तहां शुक्र बृहस्पतिसे युक्त लग्न हो तौ भी विषसे मिला हुआ दूधकी तरह त्याज्य हो जाता है और ग्रहणका नक्षत्र तथा आकाश भूकंप अदि तीन प्रकारके उत्पातके नक्षत्रको भी त्याग देवे ॥ ६६ ॥ यावच्चरणकं भुक्तं शेषं च दग्धकाष्ठवत् ॥ मंगलेषु त्यजेत्क्रूरं विद्धं भं क्रूरसंयुतम् ॥ ६७॥