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(१६४) नारदसंहिता । और विवाह आदि मंगलमें क्रूर ग्रहसे विद्ध हुए तथा कूर ग्रहसे युक्त हुए नक्षत्रको त्याग देवे एक चरण भोगा तो तो भी शेषक भी दग्धुकाष्ठकी समान जानना ॥ ६७ ॥ अखिलर्क्षं, पंचगव्यं सुराबिंदुयुतं तथा ॥ पादमेव शुभैर्विद्धमशुभं नैव कृत्स्नभम् ॥ ६८ ॥ मंगलीक कामें में एक चरणगत विद्ध होनेसे संपूर्ण नक्षत्र ऐसे त्याज्य होते हैं कि जैसे मदिराकी बूंद लगनेसे पंचगव्य अशुद्ध होजाता है और शुभग्रहका वेध चरणगत ही अशुद होता है संपूर्ण नक्षत्रका वेध नहीं होसकता ॥ ६८ ॥ क्रूरविद्धयुतं धिष्ण्यं निखिलं चैव पादतः॥ तुलामिथुनकन्यांशं धनुरंशैश्च संयुताः ॥ ६९ ॥ एते नवांशाः संग्राह्या अन्ये तु कुनवांशकाः ॥ कुनवांशकलग्नं यत्त्याज्यं सर्वगुणान्वितम् ॥ ७० ॥ कूर नक्षत्रका चरण गत वेध तथा कूर ग्रह योगसे संपूर्ण ही नक्षत्र अर्थ होता है और तुला मिथुन, कन्या, धनु इनके नवां शक शुभ कहे हैं और अन्य कुनवांशक हैं । कुनवांशकका लग्न सब गुणोंसे युक्त हो तो भी त्याग देना चाहिये ॥ ६९ ॥ ७० ॥ अस्मिन्दिने महापातस्तद्दिनं वर्जयेहुधः ॥ अपि सर्वगुणोपेतं दंपत्योर्मृत्युदं यतः ॥ ७१ ॥ जिसदिन व्यतीपात योग हो वह दिन त्यागदेना चाहिये वह दिन गुणोंसे युक्त हो तौभी स्त्री पुरुषकी मृत्यु करनेवाला है ॥७१॥ है