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a (१६८ ) नारदसंहिता । एको यथा तोयबिंदुरुदचिर्षि हुताशने । एवं संचिंत्य गणितशास्त्रोक्तं लग्नमानयेत् ॥ ८४ ॥ जैसे एकही जलकी बूंद बहुत बढीहुई अग्निको नहीं बुझा स कती तैसे ही गणितशाखको लग्नका बलाबल देखके विचार करना चाहिये ।। ८५ ।। तल्लग्नं जलयंत्रेण दद्याज्जोतिषिकोत्तमः ॥ षडंगुलमितोत्सेधं द्वादशांगुलमायतम् ॥ ८६॥ कुर्यात्कपालवत्ताम्रपात्रं तद्दशभिः पलैः ॥ पूर्णं षष्टिर्जलपलैः षष्टिर्मज्जति वासरे ॥ ८७॥ उत्तमज्योतिषी जलयंत्रसे घटी बनाकर लग्नका निश्चय करै छह अंगुल ऊंचा और बारह अंगुल विस्तारवाला दशपल (४० तोले) तांबाका कपालसरीखा पात्र बनावे जो कि साठपल (२४० तोले) जलसे भरजावे ऐसे पात्रको जलमें गेरनेसे अहोरात्रमें ६० बार जलमें डूबेगा ॥ ८६॥८७ ॥ माषमात्रत्र्यंशयुतं स्वर्णवृत्तशलाकया ॥ चतुर्भिरंगुलैरापः तथा विद्धं परिस्फुटम् ॥ ८८ ॥ तहां सोनाकी शलाईसे उडदप्रमाण छिद्रका स्थान बनावे तहां बीचमें छिद्रकरे और चार अंगुल ऊपरतक जलभरदेना ॥ ८८ ॥ कार्येणाभ्यधिकः षङ्गिः पलैस्ताम्रस्य भाजनम् ॥ द्वादशं सुखविष्कंभ उत्सेधः षङ्भिरंगुलैः ॥ ८९॥ स्वर्णमासेन वै कृत्वा चतुरंगुलकात्मकः ॥ मध्यभागे तथा विद्धा नाडिका घटिका स्मृता ॥९० ॥ ।