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९ {१७२ ) नारदसंहिता । वे इसप्रकार फल देनेको समर्थ नहीं हैं कि जैसे मूर्ख बाह्मणको दान देनेका फल नहीं है, अकेलाभी गुरु लग्नमें स्थित हो तो संपूर्ण दोषंको ऐसे नष्ट करता है कि जैसे सर्वे अंधेरेको नष्टकरता है। और लग्नमें प्राप्तहुआ अकेला शुक्र अथवा बुध ।१०४॥१०५॥ नाशयत्यखिलान्दोषांस्तूलराशिमिवानलः ॥ गुरुरेकोपि केन्द्रस्थः शुक्रो वा यदि वा बुधः ॥१०६॥ संपूर्ण दोषको ऐसे नष्ट करताहै कि जैसे रूईकी राशिको अग्नि नष्ट करदेवे अकेला बृहस्पति वा बुध तथा शुक केंद्रमें हो तो ॥ १०६ ।। दोषसंघान्निहंत्येव केसरीवेभसंहतिम् ॥ दोषाणां शतकं हंति बलवान् केंद्रगो बुधः ॥ १०७ ॥ शुक्रोऽपहाय वै द्यूनं द्विगुणं लक्षमंगिराः ॥ लग्नदोषश्च दोषा ये दोषा षडर्गजाश्च ये ॥१०८॥ दोषोंके समूहोको ऐसे नष्टकरताहै जैसे सिंह हाथियोंके समूहको नष्टकर देता है तैसेही बलवान् केंद्रमें प्राप्तहुआ बुध सैकडों दोषोंको नष्टकरता है शुक्र सातवें घरके बिना अन्यकेंद्रमें हो तो बुधसे दूना शुरु फल करता है । और बृहस्पति लाख दोषको नष्ट करता है जो लग्नके दोष हैं और षड्वर्गसे उत्पन्नहुए दोष हैं ।। ३ ०७ । १ ०८ ।। हंति ताँल्लग्नगो जीवो मेघसंघमिवानिलः ॥ केंद्रत्रिकोणगे जीवे शुक्रो वा यदि वा बुधः ॥ १०९ ॥