पृष्ठम्:नारदसंहिता.pdf/१८०

एतत् पृष्ठम् परिष्कृतम् अस्ति

भाषाटीकास०-अ० २९ ( १७३ ) ७ तिन सबदोषोंको लग्नमें प्राप्तहुआ बृहस्पति ऐसे नष्ट करता है कि जैसे बादलोंके समूहूको वायु खंडित करदेती है । बृहस्पति अथवा शुक्र तथा बुध केंद्रमें तथा नवमें पांचवें घरमें होवे तो ॥ १०९ ॥ दोषा विनाशमायांति पापानीव हरिस्मृतेः । गुरुर्बली त्रिकोणस्थः सर्वदोषविनाशकृत् ॥ ११० ॥ सब दोष ऐसे नष्ट होजाते हैं कि जैसे विष्णुके स्मरण करनेसे पाप नष्ट होजाते हैं । बली गुरु नवमें पांचवें घरमें होय तो संपूर्ण दोषोंको नष्ट करता है ॥ ११० ॥ निहंति निखिलं पापं प्रणाममिव शूलिनः॥ मुहूर्तपापषट्वर्गकुनवांशग्रहोत्थिताः ॥ १११ ॥ जैसे शिवजीको प्रणाम करनेसे संपूर्ण पाप नष्ट होते हैं और मुहूर्त दोष, पापषड्र्वर्ग,कुनवांशक ग्रह इनसे उत्पन्न हुए दोष ३११॥ ये दोषास्तान्निहंत्येव यथैकादशगः शशी ॥ नाशयत्यखिलान्दोषान्यत्रैकादशगो रविः ॥ ११२ ॥ तिन संपूर्ण दोषोंको लग्लसे ग्यारहवें स्थानसे प्राप्तहुआ चंद्रमा दूर करता है अथवा ग्यारहवें स्थानमें प्राप्तहुआ सूर्यभी संपूर्ण दोषों को नष्ट करता है । ११२ ॥ गंगायाः स्रानतो भक्त्या सर्वपापानिवाचिरात् ॥ वायूपसूर्यनीहरमेघगर्जनसंभवाः॥ ११३ ॥ दोषा नाशं ययुः सर्वे केन्द्रस्थाने बृहस्पतौ ॥ ये दोषा मासदग्धास्तिथिलग्नसमुद्भवाः ॥ ११४ ॥