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(१७४ ) नारदसंहिता । ७ ओर वायप्रतिसूर्य,धूम,रज,मेघगर्जना इत्यादि दोष केंद्रस्थानमें बृहस्पति होनेसे ऐसे नष्ट होजाते हैं कि जैसे भक्तिसे गंगाजीमें स्नान करनेसे शीघ्रही पाप नष्ट हो जाते और जो मासदग्ध, तिथि दग्ध तथा लग्नदग्ध आदिदोष हैं ॥ ११३ ॥ ११४ ॥ ते सर्वे विलयं यांति केंद्रस्थाने बृहस्पतौ ॥ बलवान् केंद्रगो जीवः परिवेषोत्थदोषहा ॥ ११४ ॥ वे संपूर्ण केंद्रस्थानमें बृहस्पति प्राप्त होने से नष्ट होते हैं और केंद्रमें प्राप्तहुआ बृहस्पति सूर्यमंडल आदि उत्पात दोषको नष्ट करता है ॥ ११५॥ एकादशस्थः शुक्रो वा बलवाञ्छुभवीक्षितः । त्रिविधोत्पातजान् दोषान् हंति केंद्रगतो गुरुः॥ ११६ ॥ ग्यारहवें स्थानमें प्राप्तहुआ शुभग्रहसे दृष्ट बलवान् शुक्र वा केंद्र बृहस्पति तीन प्रकारके उत्पातसे उत्पन्न हुए दोषोंको नष्ट करता है ॥ ११६ ॥ स्थानादिबलसंपूर्णः पिनाकी त्रिपुरं यथा ॥ लग्नलग्नांशसंभूतान् बलवान्केंद्रगो गुरुः ॥ ११७ ॥ स्थानादि बलसे पूर्णहुआ बलवान् तथा केंद्र में प्राप्तहुआ बृहस्पति लग्न और लग्नके नवांशकसे उत्पन्न हुए दोषोंको ऐसे नष्टकरता है कि जैसे शिवजीने त्रिपुर भस्म कियथा ॥ ११७ ।। भस्मीकरोति तान्दोषानिंधनानीव पावकः ॥ अब्दायनर्तुमासोत्था ये दोषा लग्नसंभवाः ॥ सर्वे ते विलयं यांति केंद्रस्थाने बृहस्पतौ ॥ ११८ ॥