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भाषाटीकास०-अ० २९. ( १७५) और केंद्रस्थानमें बृहस्पति होवे तो वर्ष, अयन, ऋतु,मास,लग्न इनसे उत्पन्न हुए दोष ऐसे नष्ट होजाते हैं कि जैसे अग्नि इंधनको भस्म करदेती है ।। ११८॥ उक्तानुक्ताश्च ये दोषास्तान्निहंति बली गुरुः । केंद्रसंस्थः सितो वापि भुजंगं गरुडो यथा ।। ११९॥ केंद्रमें स्थित हुआ बली गुरु अथवा शुक्र कहे हुए अथवा विनाकहे हुए छोटे मोटे दोषको ऐसे नष्ट कर देता है कि जैसे गरुड सर्पको नष्ट करता है । ११९ ।। वर्गोत्तमगते लग्ने सर्वे दोषा लयं ययुः ॥ परमाक्षरविज्ञाने कर्माणीव न संशयः ॥ १२० ॥ लग्न वर्गोत्तममें प्राप्तहेवे तो सब दोष ऐसे नष्ट होजावें कि जैसे बलज्ञानसे कर्मवासना नष्ट होजाती है । । २२० ।। दुःस्थानस्थग्रहकृताः पापखेटसमुद्भवा। ते सर्वे लयमायांति केन्द्रस्थाने बृहस्पतौ ॥ १२१॥ दुष्ट स्थांनमें स्थित हुए ग्रहोंके किये हुए दोष तथा पापग्रहोंके किये हुए सच दोष केंद्रस्थानमें बृहस्पति स्थित होनेसे नष्ट होजाते हैं ॥ १२१ ॥ उच्चस्थो गुरुरेकोपि लग्नगो दोषसंचयम् ॥ हंति दोषान् हरिदिने चोपवासव्रतं यथा ॥ १२२ ॥ उच्चराशिपर स्थितहुआ बृहस्पति अकेलाही जो लग्नमें प्राप्त होय तो दोषोंके समुहको ऐसे नष्ट करता है कि जैसे एकादशीका व्रत करनेसे पाप नष्ट होते हैं ।। १२२ ।।