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(१७६ ) नारदसंहिता । अष्टधा राशिकूटं च स्त्रीदूरगणराशयः ॥ राशीशयोनिवर्णाख्यशुद्धश्चेत् पुत्रपौत्रदाः ॥ १२३ ॥ आठप्रकारका राशिकूट स्त्रिदूर, गणराशि, राशिस्वामी, योनि, वर्ण ये शुद्ध होवें तो पुत्र पौत्रदायक कहे हैं ॥ १२३ ॥ एकराशौ पृथग् धिष्ण्ये दंपत्योः पाणिपीडनम् ॥ उत्तमं मध्यमं भिन्नराश्यैकर्क्षजयोस्तयोः ॥ १२४ ॥ एकराशीि हों और जुदा २ नक्षत्र हो तो कन्य ३ वरका विवाह करना ( योग्य है) उत्तमहै और राशि जुदी २ हो नक्षत्र एक ही हो तो मध्यम जानना ॥ १२४ ॥ एकर्क्षे त्वेकराशौ च विवाहः प्राणहानिदः ॥ स्त्रधिष्ण्यादाद्यनवके स्त्रीदूरमतिनिंदितम् ॥ १२६ ॥ और एक ही नक्षत्र तथा एकही राशि हो तो विवाह करनेमें प्राणहानि होती है स्त्रीके नक्षत्रसे नव नक्षत्रोंके भीतर ही पुरुषका नक्षत्र होय तो वह स्त्री दूर, अति निंदित है ॥ १२५ ॥ द्वितीय मध्यमं श्रेष्ठं तृतीये नवके भृशम् । तिस्रः पूर्वोत्तरा धातृयाम्यमाहेशतारकाः॥ १२६॥ और उसमें आगेके नव ९ नक्षत्रोंमें द्वितीय नवकमें पुरुषक नक्षत्र हो तो मध्यम फल जानना। तिसके आगेके नव नक्षत्रोंमें हो तो अत्यंत शुभफल जानना । और तीनों पूर्वा,तीनों उत्तरा,रोहिणी भरणी ॥ १२६ ॥ इति मर्त्यगणो ज्ञेयः स्यादमर्त्यगणः परः ॥ हयादित्यर्कवाय्विज्यमित्रेन्दुविष्णु चान्त्यभम्॥१२७॥ A