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(१८० ) नारदसंहिता । मीन वृश्चिक कर्क ये बाह्मणवर्ण हैं, मेष सिंह धनु क्षत्रीवर्ण हैं, मिथुन तुला कुंज, शूद्रवर्ण हैं कन्या, वृष, मकर वैश्यवर्णहैं१४०॥ ( नोत्तमामुद्वहेत्कन्यां हीनवर्णो वरः सदा ॥ आद्यमध्यान्त्यचरममध्याद्या ह्यश्विनीमात् ।। ) गणयेत्संख्यया चैकनाड्यां मृत्युर्न पार्श्वयोः । प्राजापत्यब्राह्मदैवा विवाहार्षकसंयुताः॥ १४१ ॥ उत्तमवर्ण कन्यासे हीनवर्ण वाले वरको विवाह नहीं करना चाहिये। और अश्विनी आदि नक्षत्रोंकी क्रमसे आद्य मध्य अंत्य, अंत्य मध्य आद्य,आद्य मध्य अंत्य, ऐसे नाड़ी होती हैं तहां एक नाड़ीमें विवाहकरे तो मृत्यु हो । पृथक् नाड़ी रहनेमें कुछ दोष नहीं है और प्राजापत्य, बल, दैव, आर्ष ये विवाह श्रेष्ठ कहे हैं १४१।। उक्तकाले तु कर्तव्याश्चत्वारः फलदायकाः ॥ आसुरो द्रविणादानात्पैशाचः कन्यकाछलात् ॥१४२॥ ये चार प्रकारके विवाह उक्तकालमें (शुभं मुहूर्तमें ) करनेसे अच्छा फल प्राप्त होता है जो द्रव्यलेकर कन्याका पिता विवाहकरै वह आसुरविवाह है। जो वर छलसे कन्याको हर लेजाय वह पैशाच विवाह है ॥ १४२ ॥ राक्षस युद्धहरणाद्गांधर्वः समयान्मिथः ॥ गांधर्वासुरपैशाचराक्षसाख्यास्तु नोत्तमाः ॥ १४३ ॥ युद्धमें जीतकर कन्याको लेजाय वह राक्षस विवाह, वर कन्या आपसमें बतलाकर विवाह करलें वह गांधर्व विवाह है, गांधर्व, आ सुर पैशाच, राक्षस ये विवाह पहलोंके समान उत्तम नहीं हैं३४३॥