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(१८४ ) नारदसंहिता । देवोपि तन्न जानाति किं पुनः प्राकृतो जनः॥ स कालोथान्यकालो वा पूर्वकर्मवशाद्भवेत् ॥ १९८ ॥ तत्परसे सौमाँ हिस्सा त्रुटि है, त्रुटिसे हजारवाँ हिस्सा लग्नकाल कहा है उसको देवता भी नहीं जाने फिर प्राकृत मनुष्य तो क्या जान सके वह लुप्तकाल अथवा अन्यकाल पूर्वकर्म वशसे आपही प्राप्त होजाता है ॥ १५७ ॥ १५८ ॥ निमित्तमात्रं दैवज्ञस्तद्वशान्न शुभाशुभम् । न्यग्रोधखदिराश्वत्थरक्तचंदनवृक्षजाः ॥ १६९ ॥ श्रीखंडागरुदंतोत्थं शुभशंकुमकल्मषम् ॥ द्वादशांगुलमुत्सेधं परिणाहे षडंगुलम् ॥ १६० ॥ तहां ज्योतिषी तो निमित्तमात्र है तिसके वशसे कुछ शुभ अशुभ फल नहीं होता तहां बड, खैर, पीपल, लालचंदन, नारियल, अगर इनवृझोंका अथवा हस्तीदंतका शुभ पवित्र शंकु बारह अंगुलका ऊंचा और छह अंगुल मोटाईका बनावे १५९॥ १६०॥ एवं लक्षणसंयुक्तं कल्पयेत्कालसाधने । आरभ्योद्वाहदिवसात्षष्ठे वाप्यष्टमे दिने ॥ १६१ ॥ ऐसे लक्षणयुक्त शंकुको कालसाधनमें बनावे विवाहदिनसे छठे दिन वा आठवें दिन ॥ १६१ ।।