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(१८६ ) नारदसंहिता । जिसदेवकी जो तिथ है उसी तिथिको प्रतिष्ठा करनी भी शुभ है और द्वितीया आदि दो तिथि पंचमी आदि तीन तिथि क्रमसे शुभ हैं। ।। ३ ।। दशम्यादेश्चतसृषु पौर्णमास्यां विशेषतः । त्रिरुत्तरादितिश्चांत्यहस्तत्रयगुरूडुषु ॥ ४ ॥ दशमी आदि चार तिथि पौर्णमासी विशेषतासे शुभहै तीनों ४ ।। उत्तरा, पुनर्वसु, रेवती, हस्त आदि तीनपुष्य इन नक्षत्रोंमें।। साश्विधातृजलाधीशहरिमित्रवसुष्वपि । कुजवर्जितवारेषु कर्तुः सूर्यबलप्रदे ॥ ९ ॥ तथा अश्विनी, रोहिणी, शतिषा, श्रवण, अनुराधा, धनिष्ठा इन नक्षत्रोंमें तथा मंगल बिना अन्य वार कर्ताको सूर्य बलदायक होनेमें ॥ ५ ॥ चंद्रताराबलोपेते पूर्वोक्ते शोभने दिने । शुभलग्ने शुभांशे च कर्तुर्न निधनोदये ॥ ६ ॥ चंद्र ताराबल युक्त दुपहर पहिये शुभदिन, शुभलग्नमें, शुभ नवां- शकमें कर्त्ताको अष्टम राशि अष्टम लग्न शुद्ध होने समय ।। ६ ।। राशयः सकलाः श्रेष्ठाः शुभग्रहयुतेक्षिताः । शुभग्रहयुते लग्ने शुभग्रहयुतेक्षिते ॥ ७ ॥ सब ही राशि शुभग्रहोंकी दृष्टि होनेसे शुभ कही हैं। शुभ ग्रहसे युक्त तथा लग्न होना चाहिये ॥ ७ ॥ । राशिः स्वभावजं हित्वा फलं ग्रहजमाश्रयेत् । अनिष्टफलदः सोपि प्रशस्तफलदः शशी ॥ ८ ॥