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भाषाटीकास ०--अ० ३१.८ ( १८९ जिस लग्नमें गुण अधिक हों दोष थोडे होवें तिसमें देवताकी प्रतिष्ठा करनेवाले मनुष्यके मनोरथ सिद्ध होते हैं ।। १८ ।। हंत्यर्थहीना कर्तारं मंत्रहीना तु ऋत्विजम् ॥ श्रियं लक्षणहीना तु न प्रतिष्ठासमो रिपुः ॥ १९ ॥ इति श्रीनारदीयसंहितायां सुरप्रतिष्ठा- ध्यायस्त्रिंशत्तमः ॥ ३० ॥ द्रव्यहीन प्रतिष्ठा यजमानको नष्ट करती है, मंत्रहनि प्रतिष्ठा आचार्यको नष्ट करती है, ल्क्षणहीन प्रतिष्ठा लक्ष्मीको नष्ट करती है। इसलिये हीन रही प्रतिष्ठाके समान कोई शत्रु नहीं है ।। १९ ।। इति श्रीनारदीयसंहिताभाषाटीकायां सुर प्रतिष्ठाध्यायत्रिंशत्तमः ।। ३० ।। | अथ वास्तुप्रकरणम् । निर्माणे पत्तनग्रामगृहादीनां समासतः। क्षेत्रमादौ परीक्षेत गंधवर्णरसप्लवैः ॥ १ ॥ शहर, ग्राम, घर इन्होंके रचने (चिनने ) के समयके संक्षेपमात्रसे पहिले गंध, वर्ण, रसप्लुव (ढुलाई ) इन्हों करके क्षेत्रकी अर्थात् भूमिस्थलकी शुद्धि करनी चाहियें ॥ १ ॥ मधुपुष्पाम्लपिशितगंधान् विप्रानुपूर्वकम् ॥ सितरक्तेशहरितकृष्णवर्णं यथाक्रमात् ॥ २ ॥ बालणके वास्ते मधु (शहद ) समान सुगंधिवाली, क्षत्रियोंको पुष्प समान सुगंधिवाली, वैश्यको खट्टी (काँजी) समान सुगंधिवाली,