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भाषाटीकास०--अ० ३१. (१९१ ) बढा दीखे तो वृद्धि जानना और समान कीच रहे तो समान फल जानना कीचमें छिद्र दखेि तो क्षयकारक भूमि जानना ऐसे छक्ष णसे देखे हुए भूमि स्थलको समान बना लेवे ॥ ५ ॥ ६ ॥ दिक्साधनाय तन्मध्ये समे मंडलमालिखेत् ॥ पूर्वोक्तक्षणसंयुक्ते तन्मध्ये स्थापयेत्ततः ॥ ७॥ फिर दिक्साधन करनेके वास्ते तिस भूमिके मध्यमें समान भागमें मंडळ लिखना चाहिये । पूर्वोक्त लग्नमें तहां यंत्रको स्थापित करै ॥ ७ ॥ ततश्छायाँ स्पृशेद्यत्र वृत्ते पूर्वापराह्नयोः ॥ तत्र कार्यावुभौ बिंदू वृत्ते पूर्वापराविधौ ॥ ८॥ फिर जहां दुपहर पहले और दुपहर पीछेकी छाया आती हो तहां छयाकी पिछानके वास्ते पूर्व पश्चिममें दो बिंदु कर देनी ॥ ८ ॥ रेखा या सोत्तरा साध्या तन्मध्येतिमिना स्फुटा ॥ तन्मध्येतिमिना रेखा कर्तव्या पूर्वपश्चिमा ॥ ९॥ इसप्रकार रेखा करके उत्तर दिशाका साधन करना। उत्तर दिशा दिक्साधन करके तिसके बीच मत्स्यसमान तिरछीसे। पूर्वपश्चिमी तर्फ रेखा खींचनी चाहिये ।। ९ ॥ तन्मध्यमत्स्यैर्विदिशः साध्या सूचीमुखास्तदा । मध्याद्विनिर्गतैः सूत्रैश्चतुरस्रं लिखेद्वहिः ॥ १० ॥ फिर मध्यमें मत्स्याकार सूईके मुखसदृश बारीक रेखा खींच कर विदिशा (कोणोंका ) साधन करना चाहिये, मध्यभागते निकले हुए सूत्रों करके बाहिर चतुरस्र चौंकूटा स्थल बनावे।।।।